शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

गरीब रथ? सचमुच कितना ग़रीब

माता का बुलावा आ गया था...लेकिन रिज़र्वेशन अब तक हुआ नहीं था। अब तो तत्काल का ही सहारा था। ऑफिस से मिली छुट्टियों के हिसाब से शनिवार की रात निकलना ही बेस्ट ऑप्शन था। तो भई तत्काल रिज़र्वेशन करवाया दिल्ली टु जम्मू गरीब रथ से। ट्रेन नंबर 0405...जो सिर्फ हफ्ते में एक बार यानी शनिवार की रात चलती है।

इस स्पेशल ट्रेन में महज तीन बड़े हॉल्ट(दि्ल्ली और जम्मू छोड़कर)। रात 22:50 पर चलती है और सुबह 9:10 पर जम्मू स्टेशन पहुंचा देती है.....अरे-अरे ये तो सिर्फ शेड्यूल है।

ऑफिस से समय पर अपने हिस्से का काम समेट कर घर पहुंची। अभी लगेज भी पैक करना है। चढ़ाई करनी है तो जूते रखने ही होंगे। सैकड़ों फोन आ गए "बेटा बहुत सर्दी होगी वहां"...सो ढेर सारे गरम कपड़े भी पैक करने पड़े। और बाकी बहुत कुछ....चलो कुछ छूट गया होगा तो जम्मू कोई ऐसी जगह तो है नहीं जहां ज़रूरत का सामान नहीं मिलेगा....वहीं खरीद लेंगे। बकरीद का दिन था...और पुरानी दिल्ली से ट्रेन। सो टैक्सी वाले को जल्दी ही बुला लिया। ट्रेन का डिपार्चर 10:50 का था....टैक्सी दरवाज़े पर 9 ही बजे आ लगी। साढ़े नौ बजे तक सबकी ओर से माता के लिए भेंट लेकर टैक्सी में बैठ चल पड़े स्टेशन की ओर। और आधे घंटे में प्लैटफॉर्म नंबर 18 पर।

लो जी...ये क्या? वो लड़की कह रही है ट्रेन रात डेढ़ बजे आएगी। अरे नहीं-नहीं पागल हो गई हो क्या?अरे ज़रा ध्यान से सुनिए तो क्या अनाउंसमेंट हो रही है...हां वो लड़की सही कह रही थी। अब क्या करें। सर्दी की रात प्लैटफॉर्म नंबर 18 पर गुज़ारना कितना मुश्किल था। हर बेंच पर कोई न कोई परिवार बैठा था। कहीं कोई चाय का स्टॉल नहीं। लगेज लेकर कहां कहां जाएं। तुम ज़रा बैठो मैं देखकर आता हूं। सुबह एक परांठा खाया था...उसके बाद से कुछ नहीं। भूख भी लगी थी। एक वेटिंग रूम दिखा...लेकिन ठसाठस्स भरा। कहीं जगह नहीं थी..सब जम्मू जाने वाले। इतनी देर कौन इंतज़ार करेगा.....जहां-तहां बिछौना बिछाकर सब सोने लगे। कहीं और ठौर ढूंढने जा ही रहे थे तभी एक बेंच खाली हुआ। फिर क्या था...झट से जाकर उसपर अपना सामान रख दिया और फैल के बैठ गए..मैं और मेरे पति। अब भूख का इंतज़ाम करना था....कुछ मिला नहीं तो पतिदेव बर्गर ही ले आए और साथ में कोल्डड्रिंक। मजबूरी में बर्गर खाना पड़ा। जान में थोड़ी जान आई। नींद तो आ रही थी लेकिन सुबह की थकी हुई लग रहा था कि सो गई तो ट्रेन मिस हो जाएगी। बगल की बेंच पर एक नवविवाहित जोड़ा बैठा था..साथ में कुछ किशोर थे....देखकर लगा कि जोड़े के रिश्तेदार हैं। यूं ही मौका देखकर उनसे बातचीत शुरू हो गई। पहले उन किशोरों से। बदरपुर में रहते हैं भईया..पढ़ाई करते हैं....हम नहीं, भइया-भाभी हैं ये लोग माता के दर्शन को जा रहे हैं। हम तो इन्हें छोड़ने आए हैं। ये लोग पटना से आए हैं। आज दिनभर इन्हें दिल्ली घुमाई है...अब ये घूमेंगे जम्मू फिर अमृतसर। समय ज़्यादा हो गया। फिर चाय पीने की इच्छा हुई तो सबकी दोस्ती हो गई। बाहर से चाय आई और सब ऐसे घुल मिल गए जैसे बरसों से जानते हों एक-दूसरे को। ये तक तय हो गया कि जम्मू में एक साथ माता के दर्शन के लिए निकलेंगे...एक साथ ही कटरा चलेंगे और एक ही होटल में ठहरेंगे भी। इतने में ट्रेन लग गई। पानी की बोतल नहीं सो प्यास के मारे गला सूख रहा था। बातों-बातों में उसका ध्यान ही न रहा। लगा फुली एसी ट्रेन है क्या पैंट्री वाला पानी लेकर नहीं आएगा? ट्रेन में ही ले लेंगे पानी।

अब ट्रेन खुलने वाली थी। अपनी-अपनी बर्थ पर सब अपने आपको जैसे फेंक चुके थे। सोचा तो यही था कि बर्थ पर पड़ते ही सो रहेंगे। लेकिन गरीब रथ की गरीबी का अहसास होना शुरू हो गया था। बर्थ छोटी-छोटी। उसपर कुछ सामान रख दो तो सोते नहीं बनता। उसपर साइड वाली सीट हो...वही आरएसी....तो और मुसीबत। आते जाते लोग बार-बार टकराते जाएं। और तो और साइड में बीच की बर्थ तो मैंने पहली बार देखी किसी ट्रेन में। सचमुच थोड़ी देर में ही लगने लगा कि स्लीपर क्लास तो इससे लाख दर्जे अच्छी होती है। बस ट्रेन के फर्श पर लोग बिछावन बिछाकर सोए नहीं दिखाई दे रहे...यही अंतर है। अब पैंट्री वाले के इंतज़ार में बैठी रही...कब आएगा पानी?लेकिन बैठते-लेटते रात गुज़र गई। उसपर ऊपर की बर्थ पर सोए अंकलजी खर्राटे मार रहे थे...निंदिया रानी तो पहले ही पानी न मिलने के चलते रूठी हुई थीं उसपर खर्राटे सुनकर कहां से आतीं?

अरे, इस स्पेशल ट्रेन में पैंट्री वाला नहीं आया...चलो रात को नहीं आता होगा, लेकिन वॉशरूम में पानी न आने का क्या मतलब कोई बताएगा। रातभर में दो-तीन चक्कर काटे टॉयलेट के लेकिन पानी नहीं। वॉशरूम तो छोड़ो...वॉशबेसिन में पानी नहीं। वॉशरूम में तो फिर भी बूंद-बूंद पानी टपक रहा था। अंदर से मन रो रहा था। कैसी ट्रेन में बैठ गए हैं। न पानी है, न सोने की ठीक-ठीक व्यवस्था। और ना ही बाहर की ताज़ी हवा। घुटन हो रही थी ट्रेन में। सुबह हुई तो हर शख्स दूसरे शख्स से यही कहता सुनाई पड़ रहा था कि "पता होता कि ये ट्रेन ऐसी होगी तो इसमें कभी न बैठते। कहीं न कहीं से आवाज़ सुनने को मिल रही थी कि भाईसाहब आप पहले कभी आए हैं इस ट्रेन में?...नहीं जी मैं पहली और आखिरी बार आया हूं।" अपना दुख थोड़ा हल्का लगने लगा। सुबह करीब 8 बजे ट्रेन रुकी लुधियाना में। यहां स्टॉपेज टाइम है 20 मिनट का...लेकिन ज़्यादा ही रुकी होगी। चाय वाला आया...बिना पानी की बोतल के। उससे कहा भाई चाय तो दे दो लेकिन उससे पहले पानी की बोतल भिजवा दो प्लीज़। बंदा चाय के पैसे लेकर गया और तुरंत पानी की बोतल भी लेकर हाजिर हो गया। पानी को देखकर ही इतनी खुशी मिली कि क्या कहने। खैर...अब घंटों बाद गले से उतरा पानी, जान आ गई।

लुधियाना आ गया था...लोग कह रहे थे अब चार घंटे में जम्मू पहुंच जाएंगे। सोचा चलो काट लेंगे चार घंटे और। जी फिर रुख किया वॉशरूम का तो पानी अब तक नहीं....लगता है हमारी बोगी में ही नहीं है। कोच में मौजूद रेलवे कर्मचारी से पूछा भी पानी नहीं आ रहा...सारी रात लोग यहां परेशान रहे। कहने लगा मैडम आ रहा होगा...ऐसा कैसे? फिर कहने लगा अभी पांच मिनट में ठीक करवाता हूं। उसने ठीक भी करवा दिया। लेकिन कुछ देर बाद फिर वही समस्या। लगा माथा-पच्ची से कुछ मिलेगा है नहीं..बस भगवान जल्दी से जम्मू पहुंचा दे। लेकिन, भगवान को कहां मंजूर...भई ट्रेन लेट चली है तो बाकी की ट्रेनें थोड़े ही न देर करेंगी, वो तो टाइम से ही चलेंगी। अब गरीब रथ को जब लाइन फ्री मिलेगी तभी तो खिसकेगी। चलो भइया रामभरोसे। नाम तो रथ....लेकिन लग रहा था ट्रेन में पहिए भी नहीं हैं....खच्चर ही खींच रहे हैं ट्रेन को। सीट के बगल में एक परिवार बैठा था...मीयां-बीवी और उनका छोटा 4 साल का बच्चा ह्रितिश। बड़ा प्यारा बच्चा। वो न होता तो ये सफर न जाने और कितना लंबा और बोरिंग हो जाता। कहने लगा पापा ट्रेन रुक क्यों रही है बार-बार....पापा जवाब देते गरीब रथ है ना...बोलता रथ तो तेज़ दौड़ता है...पापा बोलते बेटे इस रथ में घोड़े नहीं लगे। रुकते-चलते, रुकते-चलते चक्की बैंक आ गया। लगा अब ज़्यादा नहीं। लेकिन भाई साहब लेट हो चुकी ट्रेन कहां टाइम कवर करती है। तीन घंटे लेट हुई तो तीन घंटे और उसमें जुड़ जाते हैं।

फिर ट्रेन रुकी तो बच्चे की हरकतें फिर शुरू। सामने की सीट पर एक सरदार जी बैठे थे। बच्चा बोला...आप सरदार जी हो। जवाब आया हां। बोला फिर तो आप गुरुद्वारे में रहते होंगे? सरदार जी बोले नहीं...फिर आप तो मंदिर में रहते होंगे। बच्चा बोला हां तो मेरे घर में मंदिर है मैं पूजा करता हूं तो मैं मंदिर में ही रहता हुआ ना.....!उफ्फ ये ट्रेन चल क्यों नहीं रही। थोड़ी देर में चल पड़ी। रफ्तार देखकर लगा पतानहीं कब तक पहुंचेंगे...सो पैंट्री से ही नाश्ता लेकर खा लिया। अब पीने का पानी तो ले लिया था....वॉशबेसिन में भी हाथ धोने के लिए पानी आने लगा था। चलो..उस बेल्ट में अखबार मिला तो सिर्फ अमर-उजाला। रविवार था...कुछ खास समाचार नहीं दिखा। नींच आने लगी। मैं आधे घंटे के लिए सो गई। उठी तो अब भी जम्मू काफी दूर था...और गरीब रथ के घोड़े रेंग रहे थे। इसी रफ्तार से गरीब रथ किसी तरह सांबा तक पहुंच गई। 1 बजने वाले थे। अब तो बस थोड़ी देर ही बाकी है...ज़्यादा से ज़्यादा आधा घंटा। सबके चेहरे पर खुशी। लेकिन गरीब रथ ने इस खुशी से भी गरीब कर दिया सबको। चलती फिर रुक जाती..और एक-दो मिनट के लिए नहीं कभी बीस मिनट तो कभी आधा घंटा। फिर चली थोड़ी देर के लिए। अब तो जम्मू स्टेशन से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर खड़ी रही तकरीबन एक घंटा। कई लोग जो कईयों बार यहां आ चुके थे या फिर यहीं के बाशिंदे थे रथ को छोड़ बीच रास्ते ही उतर गए और पैदल ही सामान के साथ बाकी दूरी तय करने लगे। ट्रेन में बैठे लोगों के पास फोन पर फोन आ रहे हैं....जी कहां तक पहुंचे हैं...हम आपको लेने के लिए स्टेशन पहुंच चुके हैं। उसमें उस बच्चे की परेशानी अलग...पापा मैं देखकर आता हूं आखिर ट्रेन चल क्यों नहीं रही है? लगता है मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। बीच बीच में उसकी बातें हंसा देती। आखिर में करीब एक घंटे से एक ही जगह पर खड़ी ट्रेन चल पड़ी और पांच मिनट में हम जम्मू स्टेशन पहुंच गए।

अब कटरा पहुंचने की जल्दी थी...चढ़ाई भी आज ही शुरू करनी थी। उतरते ही पहले वेटिंग रूम में मिले पटनाके जोड़े को साथ लिया और एक टाटा सूमो कर कटरा निकल पड़े। लेकिन, कटरा के रास्ते भर गरीब रथ की गरीबी पर चर्चा चलती रही। हर मामले में गरीब है गरीब रथ। भले ही लालू प्रसाद जी ने गरीबों को सस्ते में AC-ट्रेन का तोहफा दिया लेकिन गरीब के पास जिस चीज का अथाह सागर है यानी समय...उसके बारे में सोचा या नहीं सोचा, पतानहीं। या यूं कहें कि लालू जी जानते थे कि गरीब समय खर्च करने में खुश है क्योंकि उसके पास पैसा नहीं....तो गरीबों को हर लिहाज से गरीब गरीब रथ का सफर कहीं नहीं खलेगा। लेकिन, हम जैसे मध्यमवर्गीय लोगों का क्या? जिन्हें ऑफिस से छुट्टी भी गिनकर मिलती है। एक-दिन आगे पीछे हुआ नहीं कि नौकरी पर प्रशनचिन्ह लग जाता है।

बहरहाल, गरीब रथ चाहे कितनी भी गरीब क्यों न हो...लेकिन सच तो ये है कि लाखों लोगों को यही ट्रेन माता के दर्शन करवाती है। यही वो रथ है जिसे सरपट घोड़े नहीं दौड़ाते...लेकिन देर-सवेर आप अपने गंतव्य पर पहुंच तो जाते हैं। और तो और, अगर आप तत्काल से भी गए तो अंत तक इस ट्रेन में आपको तत्काल आरक्षण मिल ही जाता है।

रविवार, 15 नवंबर 2009

जब दरवाज़े पर खड़ी थी भविष्य बताने की दुकान

भविष्य बताने वालों की दुकान आपके दरवाज़े पर आ जाए, दुकान तुक्के पे तुक्का भिड़ाती जाए और सारे के सारे तीर निशाने पर लगते चले जाएं तो जाहिर है आपकी जेब भी हल्की होने को बेकरार हो उठेगी। अब ऐसा हुआ क्या...मैं अब आपको बताती हूं...सिलसिलेवार पूरी की पूरी गाथा।



मंगलवार का दिन..मोहल्ले में सन्नाटा। ऑफिस से कुछ दिनों की छुट्टी पर चल रही थी। पति के ऑफिस निकलने के बाद सोचा थोड़ा आराम कर लूं...फिर उठकर स्नान-पूजा की जाएगी। आराम क्या, आंख ही लग गई। थोड़ी देर बाद..यही कोई 10 बजे दरवाज़े पर खटखट हुई। हमेशा की तरह आवाज़ लगाई और पूछा कौन है लेकिन जवाब नहीं आया तो दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़े पर कुछ सरदारों की टोली थी, हाथों में कुछ कार्ड और पर्चे थामे उनमें से एक बोल पड़ा जी पास में लंगर है कुछ दक्षिणा...! मैं नींद में तो थी ही वो बोले जा रहा था मैं सुने जा रही थी। ईश्वर के नाम पर दान या चंदा देने में कोई हर्ज तो है नहीं यही चल रहा था मन में । सोचा-दे-दाकर भगाऊं इन्हें। बोलते-बोलते ही कार्ड मुझे थमा दिया एक सरदार ने और झट से 200-200 रुपये की दक्षिणा की पर्चियां दिखाने लगा। क्षणभर में मौक़ा देखकर 200 रुपये की पर्ची मेरी भी काट दी और बोले फलां व्यक्ति ने 200 दिए फलां ने 200 दिए आपकी भी 200 की पर्ची काट दी। मैंने कहा जी मैं आपको 200 रुपये नहीं दूंगी...जितनी मेरी श्रृद्धा उतना ले जाओ....बोले अच्छा चलो सौ की काट देते हैं।



मैं सौ रुपये ले आई और फिर पर्ची पर लिखने के लिए पति का नाम...मेरा नाम पूछ डाला। नाम पूछते ही फिर बातों में उलझा लिया। पति को कहिए कि फलां दिन शेव न करें, आपके सिर में हमेशा दर्द रहता है लेकिन बहन आपका चेहरा काफी लकी है, आपके विवाह के समय कुछ बुरा हुआ था ...वगैरह-वगैरह। पति को कहिए मंगलवार और शनिवार को फलां काम न करें। आपके पति गुस्से वाले ज़रूर हैं लेकिन दिल के नेक इंसान। घर में बरकत चाहिए तो ऐसा करें-वैसा करें। मैं क्यों यक़ीन करती...नींद में थी बस मन में चल रहा था कि ये जाते क्यों नहीं?



शायद ये पहली बार था कि दरवाज़े पर कौन है ये बिना जाने ही दरवाज़ा खोल दिया था। नींद का खुमार उतरने लगा था और मन में घबराहट के पहाड़ खड़े होते जा रहे थे। पर्ची मेरे हाथ में आ चुकी थी लेकिन मुझे उस पर्ची को देखने का मौक़ा तक नहीं दे रहे थे वो सरदार और अपनी बातों की पोटली खोलते ही जा रहे थे। यहां तो मन घबराहट में सांस ले रहा था...एक तरफ आस्था की बात तो दूसरी तरफ मेरे सामने ऐसे लोग जो न जाने सचमुच के ज्ञानी थे या तुक्केबाज़ जो सबकुछ सही-सही बके जा रहे थे। मेरी शादी की तारीख और साल तक सही-सही बता दिया उस सरदार ने। माता रानी के दर्शन, अपना मकान और न जाने क्या-क्या...ये सारे वो काम जिन्हें करने के लिए मैं कबसे कोशिश कर रही हूं। न जाने इन्हें ये कैसे पता...इन्हीं बातों का सहारा लेकर ये मुझे बातों में उलझाए रहे। इन बातों को मैं ढोंग समझ पाती कि इससे पहले कुछ ऐसा कह देते जो वास्तव में मेरे साथ घट चुका होता।



एक-बारगी दिमाग में ये खयाल आ गया कि कहीं ये मेरे बारे में कोई सर्वे कर के तो नहीं आए हैं? जी घबरा रहा था...कहीं इनकी बात न सुनी तो कुछ अनर्थ न हो जाए। तमाम तरह के सवाल मन में हिचकोले खा रहे थे। उसपर अपने आपको संभाले रखना भी ज़रूरी था। इन सरदारों की कोई बात मुझे ग़लत नहीं लगी। तकरीबन इन लोगों ने मुझे और चढ़ावा देने के लिए मना ही लिया था...पर आखिर में मेरा दिमाग ठनक गया। जहां ये सरदार खड़े थे वहां पास में ही सांई बाबा की तस्वीर लगी हुई है। सरदार बोल पड़ा आप शिरडी जाना चाहती हैं ना...गई हैं कभी? मैंने कहा हां जाना है कभी गई नहीं हूं। मुझे समझते देर नहीं लगी....तस्वीर को देखकर अंदाज़ा लगाया। फिर क्या था किसी तरह मैंने उन्हें अपने दरवाज़े से भगाया।



बैठी सोच ही रही थी कि पतानहीं सही किया या ग़लत...अचानक ध्यान आया कि पर्चा तो देख लूं आखिर लंगर है कहां। पर्ची देखी तो वो थी पंजाबी भाषा में। कार्ड पर छपे नंबर पर डायल किया तो फोन रिसीव करने वाला बोला जी हमने तो कोई लंगर नहीं रखवाया। उसे समझते देर नहीं लगी...कहने लगा मैडम लगता है मेरे नाम का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। कहने लगा क्या आप बता सकती हैं कि कार्ड कैसा दिखता है...आप कहां रहती हैं...क्या मैं आपसे पर्ची कलेक्ट कर सकता हूं? मैंने सब बताया लेकिन पर्ची कलेक्ट करने के लिए मना कर दिया।



ये तो तय हो गया था कि मैं बेवकूफ़ बन गई थी। वो सरदार न तो माता के भक्त थे ना ही वाहेगुरू के सच्चे भक्त। स्वयं पर गुस्सा आ रहा था। दिमाग़ को अजीबो-ग़रीब सवालों ने घेर लिया था। मसलन, उन सरदारों का मकसद पैसा वसूलना था तो वो किसी के बारे में इतना सबकुछ कैसे जान सकते हैं?



अब आंखें बंद कर मैं पूरे वाकये के बारे में सोचती रही। बार-बार दिमाग का टेप रिवाइंड-फॉरवर्ड करती रही और टेप खत्म होने पर जो एक सुकून होता वो ये कि चलो अंत में मैं समझ गई उन सरदारों को और 100 रुपये से ज़्यादा का चढ़ावा देने से साफ-साफ बच गई। रिवाइंड-फॉरवर्ड के इस खेल में परत-दर-परत सबकुछ साफ होने लगा। सबसे पहले अगर मैंने उन्हें 100 रुपये न दिए होते तो बात शुरू ही न होती। उनकी बातें सुनना मुझे बहुत महंगा पडा़...और महंगा पड़ सकता था।



गहराई से सोचा तो नतीजा ये निकला कि मेरे और पति के बारे में पूछकर और मोटा-मोटी बातें बताकर उन लोगों ने पहले मेरा विश्वास जीत लिया...ये ऐसी बातें थी जो अमूमन ऐसा कोई भी व्यक्ति बता सकता है जो नाम के हिसाब से राशि का थोड़ा-बहुत ज्ञान रखता हो। रही बात पसंद के फूल का नाम सोचने की तो शायद हर कोई गुलाब ही सोचेगा। इसके अलावा,ऐसा पक्षी जो मांस न खाता हो सोचे तो शायद तोता और कबूतर ही दिमाग में आएगा। यानी अंग्रेज़ी का पहला अक्षर 'p'।



फिर आई शादी की तारीख की बात, तो सरदार ने दूर जाकर एक कागज़ पर तारीख लिखने को कहा। सरदार ने मुझे ऐसी कलम दी जिससे लिखने में दिक्कत हो रही थी...यानी ज़ोर लगाकर लिखना पड़ा। मुमकिन है कि उसने हाथों की मूवमंट से पता कर लिया हो कि मैंने क्या तारीख लिखी..क्योंकि कलम मशक्कत करा रही थी। सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात शादी की बिलकुल सही तारीख और साल बताना ही लगा था। लेकिन इसके पीछे की चाल भई समझ आ गई।



इतने में याद आया एक सहेली भी कुछ ऐसा ही बता रही थी। फिर क्या था। अब भी अपनी उधेड़-बुन पर कन्फर्मिटी का स्टैंप लगाने के लिए सहेली को कॉल किया। आपबीती सुनाने से पहले मैंने उससे सवाल किए। कन्फर्म हो गया कि उसके साथ भी हूबहू वही और वैसे ही घटा जैसे मेरे साथ। सबसे बड़ी बात ये कि ये सरदार हमेशा सुबह का ही समय चुनते हैं...ऑफिस का टाइम जब लोगों के पास सोचने-समझने की फुरसत के बदले जल्दी-से बात को रफा-दफा करने भर ही समय होता है। सहेली से पूछा कि देखो तो क्या पर्ची पंजाबी में है क्या? ...उसने देखा तो सचमुच ऐसा ही था,उसपर छपा नंबर भी वही।



इतनी ही नहीं...अगले दिन एक और सहेली से बात हो रही थी उसे ऐसे सरदारों से सतर्क रहने के लिए कहा तो बोल पड़ी मेरे साथ खुद 2 साल पहले ऐसा वाकया हो चुका है...जल्दी में थी तो 400 रुपये दान कर दिए। लीजिए चलिए ये खुशी हुई कि मैं अकेली बेवकूफ नहीं बनी...लेकिन ये सोचकर और दुख हुआ कि जब मेरे जानने वालों में तीन लोगों के साथ ये घट चुका है तो बाकी कितनों को झांसा दे चुके होंगे ये सरदार?



बड़ा अफसोस हुआ ये सोचकर कि आस्था और ईश्वर के नाम का सहारा लेकर कमाई करने वालों से अटा पड़ा है हमारा देश। इन्हें पहचानने में चूक स्वाभाविक है...लेकिन ज़रूरत है तो नींद से जागकर सतर्क रहने की।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

सबकी पारी ख़त्म...अब मैं कमाउंगा


.....चलो दिवाली बीती। कम से कम अब तो मेरी कमाई के दिन लौटे। आप सोच रहे होंगे कि ऐसा कौन जो अपनी कमाई के लिए दिवाली के बीतने का इंतज़ार कर रहा है? एक खबर पढ़ी उसमें दिवाली की मौज-मस्ती पर करोड़ों को धुंआं बनाने की बात कही गई। खबर कहती थी कि नवरात्र से लेकर दिवाली तक अकेले दिल्ली ने 6,000 करोड़ रुपयों को धुंए में उड़ा दिया। कपड़े-खिलौने-बर्तन-ड्यूरेबल आइटम, इलेक्टॉनिक गैजेट्स और न जाने क्या-क्या। जैसे इन सब पर खर्च करने के लिए दिल्ली कब से इंतज़ार कर रही थी। पूरा शहर भूल गया कि मंदी के टाइम से अभी-अभी पीछा छूटना शुरू ही हुआ है।


सबने जमकर कमाई की। खूब बिके कपड़े-साजो सामान और मिठाईयां.....लेकिन सन्नाटा पसरा रहा डॉक्टर के दरवाज़े। हो भी क्यों ना? खुशी के माहौल में भला डॉक्टर की याद आती है क्या? लेकिन, बाबू दिवाली का आना कमाई के मौक़े लेकर आया था तो अंत में डॉक्टर क्यों न कमाए? सालभर से सब सुन रहे थे कि मंदी के चलते ये हो गया, वो हो गया.....दिवाली आते ही पर्चेज़िंग पावर अपने आप ही आ गई। परंपरा की बात है भई। कैसे चलेगा...दिवाली मनानी ज़रूरी है और उसी तरह से मनाएंगे जैसे हर साल मनाते थे...अब कमाई नहीं होगी तो क्या होगा....किसी का खर्च कह लो और किसी की कमाई। लेकिन डॉक्टर तो खर्च से भी रहा और कमाई से भी।

अब सुनिए डॉक्टर की कहानी(डॉक्टर-कंपाउंडर का संवाद)....
कंपाउंडर से बोला डॉक्टर...
धंधा मंदा चल रहा है भई,
कोई पेशेंट ही नहीं।

डॉक्टर से बोला कंपाउंडर...
सर सब दिवाली की तैयारी में खुश हैं,
आपकी याद किसी को क्या आएगी?

डॉक्टर कंपाउंडर से...
लोग बीमार नहीं पड़ रहे क्या,
कैसे चलेगी रोज़ी-रोटी?

कंपाउंडर बोला डॉक्टर से...
सर, बस थोड़ा इंतज़ार कीजिए
दिवाली बाद लाइन लग जाएगी

कंपाउंडर से बोला डॉक्टर...
कमाल करते हो...कैसे?
अचानक महामारी के संकेत हैं क्या?

कंपाउंडर बोला डॉक्टर से...
अरे सर आप भी क्या बात करते हैं?
अखबार-टेलिविज़न नहीं देखते क्या?
सुर्खियों में रोज़ाना यही दिखाई देता है...
दिवाली पर आप खाएंगे मिठाईनुमा ज़हर
चॉकलेट भी न खाएं...इसमें भी मिलावट

तो उससे क्या होगा...कमाई?
कैसी बातें करते हैं डॉक्टर साहब?
पेट की अंतड़ियां जब सिकुड़ेंगी
तो किसके पास आएंगे लोग...आपके पास ना!
पटाखों के शोर से जब फटेंगे कान के पर्दे
तब किसके पास आएंगे...आपके पास ना!
पटोखों की आग में झुलसेगा कोई
तो किसके पास आएगा, आपके पास ना!

पैसे खर्चने के बाद जब बढ़ेगा बीपी
तो किसके पास आएंगे...आपके पास ना!
क्यों चिंता करते हैं डॉक्टर साहब?
लोगों ने तो एक ही दिन की खातिर खर्च किए करोड़ों...
आप एक रोग के लिए दौड़ाइएगा बरसों
फिर कैसे रुकेगी कमाई?
दिवाली का इससे बेहतर तोहफा आपको क्या चाहिए?
दिवाली के बाद कमाई ही कमाई।

डॉक्टर उछला और बोला....दिवाली बीती
लौट आए रे भइया मेरे 'कमाई के दिन'!!!!!

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

दिवाली पर नहीं कमाएंगे तो कब कमाएंगे?



एक दोस्त से बातचीत चल रही थी...मार्केट के मौजूदा हालात पर। चर्चा यहां पहुंची कि भई अब मार्केट के हालात सुधर रहे हैं आने वाले दिनों में अच्छे की ही उम्मीद करनी चाहिए। ख़ैर लगता तो ऐसा ही है। उदासी भरा मन बार-बार यही कह रहा था कि गांवों की ज़िंदगी में शायद सुकून है...शहरों में वो चैन कहां। सबकुछ मिलावटी.....खाने-पीने के सामान से लेकर दोस्ती का दम्भ भरने वाले संगी-साथियों का प्यार भी। थोड़ी देर तक दोस्त भी चुप और मैं भी चुप।


अचानक खयाल आया कि दीवाली का त्योहार सिर पर है...दीवाली बीत जाए तब तो सब ठीक ही हो जाएगा। फिर दोस्त बोल पड़ा। कहने लगा कि 'मेरे ऑफिस के सामने रोज़ाना एक एक्टिविटी होती थी...मैं समझ नहीं पाता था कि आखिर रोज़ ये होता क्या है। आज मैंने सोचा कि चलो जायज़ा लिया जाए कि क्या हो रहा है। दरअसल, ऑफिस के सामने बने एक छोटे से फैक्टरीनुमा निर्माण के सामने रोज़ाना ट्रकों की लोडिंग-अनलोडिंग होती दिखाई देती थी। मैंने सोचा देखूं कि किस चीज़ की फैक्टरी है। मौक़ा मिला देखने का। ट्रक आया और हमेशा की तरह माल की अनलोडिंग शुरू हुई। माल क्या था....टिन के डिब्बे(वैसे ही डिब्बे जिसमें बाजार में हमें मिलते हैं रसगुल्ले या रसमलाई)।'


फिर थोड़ी देर की चुप्पी। फिर बोला 'एक नज़र में लगा कि अंदर जाकर इन डिब्बों में खाने-पीने का आइटम(चाहे जो कुछ भी हो) भरा जाएगा। लेकिन मेरी नज़र में तो कुछ और ही आया। एक कमरे में बैठे कुछ लोग इन डिब्बों पर लगे लेबलों को हटा रहे थे...जबकि दूसरे कमरे में बैठे कुछ लोगों के हाथों में तैयार लेबल थे जो इन्हीं डिब्बों पर नए लेबल चस्पा कर रहे थे। नए लेबल लगे डिब्बों से फिर ट्रक को लोड किया जाने लगा। मन उसी वक्त कई सवालों से बोझिल हो गया। क्या करता...मैं कुछ सोचते-सोचते वहां से कट लिया। कभी सोचूं कि ये लोग कहीं एक्सपायर्ड माल तो नहीं बेच रहे? फिर लगा कि या किसी सस्ते और सड़कछाप ब्रैंड पर नामी ब्रैंड का लेबल चस्पा कर रहे हैं(मोटी कमाई के लिए)? ये सब सोचते-सोचते सिर चकराने लगा।'


मैं भी सोच में पड़ गई। वो बोला 'अंत में यही सोचकर अपने दिल को तसल्ली देने लगा कि बेचारे लोग जो भी कर रहे थे...शायद इसलिए कि अपने घर में दीवाली के दीप तो जला सकें। और फिर लेबल को हटाकर लेबल चस्पा करने वाले(इक्का-दुक्का को छोड़कर) तो शायद जानते भी नहीं होंगे कि वो क्या कर रहे हैं। इन सबका जिम्मेदार तो वो है जो मालिक है इस धंधे का।'


दोस्त यहीं चुप हो गया। लेकिन न जाने क्यों मेरे मन में सवालों के साथ ढेर सारा गुस्सा भी उमड़ पड़ा। और मन ने जो गुस्से से खुद के ही सवाल को जवाब दिया वो क्या था...
'सवा अरब की आबादी वाले देश में आखिर जब लक्ष्मी पूजन का त्योहार आए तो घर में दीप जलाकर हर कोई अपना घर रौशन करता है...। दीवाली पर लक्ष्मी के दर्शन नहीं करेंगे तो कब करेंगे भई....इतना बड़ा मौक़ा है। करोड़ों लोगों की दीवाली में श्रद्धा है।...कपड़े हों, मिष्ठान हो या फिर घर का साजो-सामान। इस मौक़े पर हर घर में खरीदारी होती है....तो फिर कैसे चूक जाएं ये मौक़ा? छोटा हो या बड़ा कारोबारी, सीधे रास्ते पर चलने वाला हो या फिर बुरे रास्ते पर चलकर कमाई करने वाला...ये मौक़ा कैसे चूक जाए ? भई उन्हें तो मतलब है सारा साल दीवाली मनाने से...दीवाली का दिन कैसे चूक जाए? कहते हैं ना हमारे बुजुर्ग....दीवाली पर लक्ष्मी पूजन से साल भर घर में बरकत होती है। दीवाली पर लक्ष्मी न होगी कैसे काम चलेगा?...तो फिर दीवाली पर नहीं कमाएंगे तो कब कमाएंगे?'



दिवाली पर घर में मिठाई नहीं, नए कपड़े नहीं, घर का साजो-सामान नहीं तो फिर कैसी दीवाली? ऐसा ही सोचते हैं आप और हम...लेकिन वो लोग नहीं जो कमाई करना चाहते हैं। वो तो सिर्फ ये सोचते हैं कि कमाई का ये मौक़ा हाथ से निकला तो मुश्किल हो जाएगी...फिर क्या फ़र्क पड़ता है लक्ष्मी चाहे ग़लत धंधे करके आए या फिर सही रास्ते से ...वो दीवाली पर नहीं कमाएंगे तो कब कमाएंगे?

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

...ऑफिस में ही घर बना लूं?




मंदी-मंदी कहकर खून चूस लिया इन्होंने। 10 की जगह 16 घंटे काम करो। रात को 12 बजे घर पहुंचो...लेकिन सुबह 7 बजे हाजिरी दे देना देना बाबू। कहीं ऐसा न हो कि नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। क्या करें मुई मंदी को भी हमारे ही काल में आना था। अरे भई मेहनत कर रहे हो लेकिन मेहनत का कोई फल भी तो मिले। फाइनल आउटपुट की बाज़ार में कुछ पूछ ही नहीं हो रही तो...काम तो ज़्यादा करना ही पड़ेगा। उसपर पैसा नहीं आ रहा...और तो और छंटनी पे छंटनी कर रहे हैं और बाकी जो बचे हैं उन्हें भी डराते रहते हैं, कुछ और नहीं तो मंदी के बहाने सैलरी पर ही कैंची चला डाली।

क्या करें...तनाव नहीं होगा तो क्या होगा? घर जाओ तो घरवालों की सुनो। कोई समझता ही नहीं है। उसपर अगर शादी-शुदा हैं तो और आफत। जब तक कंवारे थे॥कोई चिंता नहीं थी। खुद नहीं कमाएंगे तो मां-बाप खिलाएंगे...चलो इसी बहाने कमाने वालों की लिस्ट से एक तो घटता। अब तो घर की ज़रूरतों का हौआ ऑफिस में भी गुर्राता रहता है...कहता है स्वाभिमान भूल जा...कुत्ता बन जा।


लेकिन, मंदी का मुंह तो इतना बड़ा हो गया है कि अब बॉस के सामने दुम हिलाने से भी कुछ नहीं मिल रहा...उसकी खुद की दुम जो जाम हो गई है। सोचा नहीं था कि ये दिन दिखाएगी मंदी। लगता है ऑफिस में ही घर बना लूं। घर जाने से डर लगता है, आने वाली का हौआ आंखें तरेरे खड़ा रहता है...कहता है बचत कर, बचत कर। यहां तो आज संभालने के लाले पड़ गए हैं...आने वाले समय की कैसे सोचूं?


ऐसे में तो यही कह सकते हैं: घर का कमाऊ पूत निकम्मा हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। निकम्मा नहीं तो बीमार हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। बीमार नहीं तो पागल हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। पागल नहीं तो अधमारा बना दिया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। अधमरा नहीं तो ऑफिस में ही घर बनाकर रहने को तैयार हो गया....सब मंदी की मेहरबानी है बाबू।


ना-ना-ना..बस बहुत हुआ। अब तक मंदी की बारी थी, अब हमारी बारी है। ऑफिस को घर बनाने का खयाल छोड़ दिया हमने....

सोमवार, 21 सितंबर 2009

सच की नुमाइश...धोखा सा लगती है

नोट: मैंने सच का सामना का एक भी एपिसोड नहीं देखा है...लेकिन इसकी इतनी क्लिपिंग्स, इसके बारे में इतने डिबेट्स और लेख पढ़-चुन चुकी हूं कि शो देखने की ज़रूरत कभी महसूस ही नहीं हुई...या यूं कहूं कि देखने की बिलकुल इच्छा ही नहीं हुई तो सौ फीसदी सही होगा।


कहते हैं कि एक झूठ को भी सौ बार दोहराया जाए तो वो सच में तब्दील हो जाता है। लेकिन 'सच का सामना'कैसा सच है जिसे सच मानने को जी ही नहीं चाहता...क्योंकि इसमें संस्कृति डूबती सी दिखाई देती है। भद्दे सवाल और उनके शर्मसार कर देने वाले जवाब। मैं उन सवालों या जवाबों को यहां दोहराउंगी नहीं।


ग्लोबलाइजेशन जब तक आर्थिक स्तर तक सीमित था तब तक इसे हजम करने में शायद ही कहीं मुश्किल थी...लेकिन ये तो धीरे-धीरे संस्कृ्ति के साथ खिलवाड़ कर रहा है। कहते हैं कि साहित्य, फिल्में और टीवी वही पेश करते हैं जो समाज में हो रहा है...लेकिन टेलीविज़न तो कहीं से समाज की शक्ल को हूबहू नहीं पेश कर रहा। वो तो सिर्फ और सिर्फ टीआरपी की दौड़ में भागता चला जा रहा है। कहता है वही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं...समझ नहीं आ रहा कि समाज की भाषा टेलीविज़न के शो बोल रहे हैं या समाज टेलीविज़न की भाषा को अपनी भाषा बना रहा है। क्यों नहीं सोचते कि ऐसा सच का सामना समाज के हक में नहीं। अब तो सच का सामना टीवी पर ही नहीं...घर घर में लाइव-टेलिकास्ट हो रहा है। इसे नेगेटिव प्रेरणा ही कहा जा सकता है....सच का सामना घर में स्टेज हो रहा है और किसी न किसी को लील रहा है...यानी मौत वो भी सदमे से। शो के असर से अब तक 3 मौतें हो चुकी हैं...क्या इतना काफी नहीं आंखें खोलने के लिए?

रीएलिटी शो के नाम पर न जाने क्या परोसा जा रहा है। कहते हैं कि शो बिक रहा है...इतना मिर्च मसाला नहीं होगा तो कैसे बिकेगा। उधर, जो़रों की मार्केटिंग भी होती है तो अश्लीलता के दम पर। कहते हैं भई तुम संस्कृति की धज्जियां उड़ाओ हम तुम्हें ऐड(मनी-मनी) देंगे। क्या करें...मार्केट इकॉनमी है ना। पसीना बहाबहाकर सिर्फ पैसा ही तो कमाना है फिर संस्कृति बिके, किसी का घर उजड़े, बच्चे अपने ही मां-बाप को गालियों से धोएं या फिर पड़ोसी आपसे यूं छिपे जैसे आपका अगला शिकार कहीं वही न हो जाए। भई मेरा प्राइवेट मामला है...आपको इससे क्या। अपनी ज़िंदगी की नुमाइश करके मैं कुछ पैसे बना रहा हूं तो आपको क्या फ़र्क पड़ता है। शायद सच का सामना को सपोर्ट करने वाले यही सोचते हैं। ऐसा ही है तो अपने सच की नुमाइश प्राइवेसी में ही क्यों नहीं करते...करोड़ों लोगों के सामने सब कुबूल कर आप हो सकता है ये दिखाना चाहते हैं कि आप सच्चे हैं(सिर्फ पैसों के लिए)। लेकिन आपका एक सच अगर करोड़ों को ये सोचने पर मजबूर कर दे कि 'सच इतना कड़वा भी हो सकता है'...तब आप क्या करेंगे...जाहिर है आपको कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन समाज का बिगड़ता है। यकीन मानिए आप ऐसे अश्लील सच को बेचकर भले ही कुछ पैसा कमा ले जाएंगे लेकिन बाकी सबकुछ खो देंगे। अपने आप से और अपने अपनों से सच बोलना काफी है...नुमाइश सिर्फ धोखा सा लगती है...इससे ज़्यादा कुछ नहीं। कंटेस्टेंट्स में से किसी एक को भी अगर अदालत में सच कुबूलना हो तो यकीनन कोई नहीं करेगा(शायद गीता पर हाथ रखकर भी नहीं, बशर्ते ज़िंदगी दांव पर न हो)...क्योंकि वहां उसे सजा मिलेगी, लेकिन यहां तो सजा नहीं...पोटली मिलेगी धन की पोटली...फिर चाहे अपनों का जीना दूभर हो जाए, भले संस्कृति को ताक पर रखकर क्यों न मिले...क्या फ़र्क पड़ता है पैसे तो आ गए ना। सवाल का जवाब सच हो या झूठ...धज्जियां तो कंटेस्टेंट की उड़ीं।

नोट: मेरे एक मित्र से इस शो पर जिक्र हो रहा था...तो उनके मुंह से निकली एक बात मुझे बड़ी सटीक लगी। एक उम्रदराज कंटेस्टेंट अपने जवाबों की दलील में ये कह रहे थे कि वेश्यावृत्ति सबसे पुराना पेशा है...मैं सलाम करता हूं इस प्रफेशन को। तो मेरे मित्र ने कहा कि तो "क्यों नहीं इस पेशे को कानूनी करार कर दिया जाता। अगर वेश्यावृत्ति गैर-क़ानूनी है तो इस शो तो कतई कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए।"

अगर आपको ये शो पसंद नहीं तो मत देखिए..क्यों देखते हैं? अगर आपको इसमें अश्लीलता की बू आती है तो चैनल स्वैप कर लीजिए। जनाब शो के पहले एपिसोड से पहले ही क्लिपिंग्स का दौर शुरू हो जाता है। क्लिपिंग्स भी आधे घंटे में तीन-तीन बार...वहां भी सिर्फ वही सवाल-जवाब जो अश्लीलता को भी अश्लील कर दें। कैसे कहें और किसे कहें कि बेटा ये चैनल न देखो? एक बार की बात हो तब तो। ये तो छोड़िए...शो के जितने एपिसोड टेलिकास्ट नहीं हुए उससे कहीं ज़्यादा तो डिबेट हो चुके हैं। स्टार प्लस से हट किसी न्यूज़ चैनल पर जाएं तो चल रही होती है डिबेट...अरे महाबहस। क्या इस शो पर बैन होना चाहिए? अजीबो-गरीब दलीलें। हाफ स्क्रीन पर बहस और हाफ स्क्रीन पर शो की क्लिपिंग्स उनमें भी बार-बार वही सवाल जिनमें ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि ऊपर से नीचे तक कपड़े पहना हुआ इंसान पूरी तरह से नंगा हो जाता है। फिर कहते हैं कि शो न देखें..क्या देखें न्यूज़ चैनल........?(अगर याद हो आपको शो के शुरू होते ही, सारे न्यूज़ चैनल्स पर डिबेट का दौर चल पड़ा था।)

जब रीएलिटी शो की बात चली ही है तो यहां एक बात याद आ गई। कुछ महीने पहले एक निजी चैनल पर एक रीएलिटी शो में एक कंटेस्टेंट को जीरो नंबर देकर शो से बाहर का रास्ता दिखाया गया...वो भी बेशरम होने का खिताब देकर। अगर आपने देखा होगा तो आपको याद होगा उस शादी-शुदा लड़की ने सिर्फ अपने गाने के साथ थोड़ा सा डांस कर दिया था...जो अश्लील तो कहीं से नहीं लगा लेकिन जज तो जज ठहरे। उनकी नज़र में जो सही वो सही। ये ज़िक्र मैं अनायास ही यहां नहीं लाई हूं। कहने का मतलब ये है कि गाने के साथ थोड़ा सा अभिनय करना अगर अश्लील हो सकता है तो सच का सामना को आप क्या कहेंगे? रीएलिटी शोज़ की परिधि क्या है ये कौन तय करेगा। क्यों बनते हैं कानून? क्या इस संदर्भ में कोई कानून नहीं बनना चाहिए? एक तरफ किसी को प्राइज़-मनी से दूर कर दिया जाता है, मान-सम्मान की धज्जियां उड़ाई जातीं हैं और शो से भी बाहर कर दिया जाता है....और दूसरी तरफ ऐसा रीएलिटी शो जिसमें सिर्फ और सिर्फ अश्लीलता भरे या फिर रिश्तों में खलल पैदा करने वाले सवाल पूछे जाते हैं। क्या किसी की ज़िदंगी में जो कुछ भी गुजरा उसका दायरा इतना छोटा सा था? कहना सिर्फ इतना है कि सवालों के दायरे तय करने की जिम्मेदारी कौन लेगा?
कई लोगों से बात हुई तो उन्होंने कहा कि नेता इस शो का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि जनता के सामने कहीं उनका कच्चा-चिट्ठा न खुल जाए। लेकिन मैं कहती हूं कि भले ही नेता अपनी पोल-पट्टी खुलने से डर रहे हों...लेकिन जाने-अनजाने में उनका विरोध समाज के हित में बिलकुल सही है। अगर अपने कच्चे-चिट्ठे के डर से ही वो इस शो का विरोध कर रहे हैं तो मेरा उनको सलाम है...क्योंकि कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का अंश तो ज़िंदा रहेगा!

यकीन मानिए सच का सामना सिर्फ एक ही सच का सामना कर रहा है वो ये कि कंटेस्टेंट सच बोल रहा है(अगर बोल रहा है और पॉलिग्राफी मशीन कितने सच नतीजे देती है ये अब तय किसी को नहीं पता...मशीन है मशीन की तरह ही काम करेगी।)...बाकी सब झूठ है, मिथ्या है...क्योंकि वो सच घरों को तोड़ने की, समाज को बिखेरने की, रिश्तों में दरार पैदा करने की और संतान को अपनी मां की कोख पर भरोसा न करने की नींव तैयार कर रहा है।
ये मेरा नजरिया है....जो शायद सच का सामना के सच को सपोर्ट करने वालों से बेहद जुदा है। अगर ये है ग्लोबलाइज़ेशन की देन तो इसपर लानत है क्योंकि सच है डूब रही है हमारी संस्कृति...मुश्किल हो जाएगा आने वाली पीढ़ी को जवाब देना कि कैसे जुदा है हमारा प्यारा भारत जुदा है बाकी दुनिया से? यही है मेरी चिंता का सबब...क्या कहूं?

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिंदी की याद या हिंदी को श्रद्धांजली?


काहे की मातृभाषा है हिंदी...जब अंग्रेज़ी बिना काम ही नहीं चलता। सितंबर का महीना आता है और आने लगती है हिंदी की याद...साल भर क्यों नहीं याद रहता कि यही वो भाषा है जो राष्ट्र को जोड़े हुए है? हिंदी पखवाड़ा आते ही जगह-जगह बोर्ड टंगे नज़र आते हैं जिनका मजमून कुछ इस तरह होता है...फलां तारीख से फलां तारीख तक हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। समझ नहीं आता कि ये खुशी है या फिर हिंदी को दी जाने वाली एक तरह की श्रद्धांजली? क्या चाहते हैं हम? इस पखवाड़े का आयोजन कर हम नौजवानों और बच्चों को ये याद दिलाने की कोशिश कर रहे है कि ये हमारी मातृभाषा है और उन्हें वापस हिंदी की तरफ लौटने को कह रहे हैं....या फिर ये कह रहे हैं कि कभी ये हमारी मातृभाषा हुआ करती थी, ये पखवाड़ा उसी को श्रद्धांजली देने के लिए आयोजित किया जाता है।

मालूम पड़ता है कि पूरा देश ही अंग्रेज़ियत का गुलाम हो गया है। हिंदी बोलने और लिखने वाले को न जाने क्यों हीनता का शिकार होना पड़ता है। अंग्रेज़ी नहीं आती...कम तनख्वाह पर ही काम करना होगा। अंग्रेज़ी नहीं आती...तुम्हारे लिए यहां कोई जगह नहीं...क्या फ़र्क पड़ता है जो तुम हिंदी के महाज्ञाता हो। कुछ चुनिंदा सरकारी दफ्तरों में हिंदी का आज भी मान है...लेकिन वहां भी प्रमुख भाषा के तौर पर नहीं। भई दोनों भाषाओं की बढ़िया पकड़ है तो स्वागत है, अनुवाद करना आना चाहिए। क्यों...क्या ये सच्चाई नहीं? यानी पन्नों पर ही ज़िंदा रह गई है हिंदी।

सवाल ये है कि क्या हिंदी लुप्त हो चुकी है? नहीं, क्योंकि उसी का सिरा हम पकड़े हुए हैं। भाषा मिलावटी हो गई है तो क्या...वैश्विकरण की ही देन समझ लीजिए। वैसे भी सामने वाला आपकी भाषा समझ न पाए तो उस भाषा का क्या अर्थ? यहां फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' के एक संवाद का जिक्र करना शायद सही हो। फिल्म में विद्या बलान जब संजय दत्त से पूछती हैं कि आप प्रफेसर होकर भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं...यानी 'बोले तो'? तो संजय का जवाब वाकई आज के समाज को प्रतिबिंबित करता है। उन्होंने जवाब दिया आज के स्टूडेंट्स को शुद्ध हिंदी समझ ही नहीं आती॥जैसे बोलें 'हृदय परिवर्तन'तो लगता है 'हार्ट अटैक' की बात हो रही है। हालांकि, फिल्म में संजय का किरदार असल में मवाली का था लेकिन बात पते की कह गया ये संवाद।

सवाल उठता है कि आखिर दोष किसका है? यहां फिरंगियों के सिर पूरा का पूरा दोष मढ़ने से काम नहीं चलेगा। अंग्रेज़ों ने बरसों तक हमारे मुल्क पर राज किया...सारा का सारा सरकारी कामकाज़ अंग्रेज़ी में होने लगा लेकिन क्या आज़ादी के 62 साल गुज़र जाने के बाद भी हमें इतना समय नहीं मिला कि इस ढ़ांचे को बदल सकें। क्यों नहीं इस बात पर ज़ोर दिया गया कि सरकारी कामकाज के लिए प्रमुख भाषा हिंदी ही रखी जाए। क्यों नहीं देश के हर नागरिक को इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वो हिंदी(भाषा-आचार-विचार) में जिए। लेकिन, अगर आप सोच रहे हैं कि मेरा कहने का अर्थ सिर्फ सरकार से है या फिर इस हालात तक पहुंचने का ढ़ींकरा सरकार के मत्थे मढ़ रही हूं तो आप ग़लत हैं।

अभिभावकों से एक सवाल है...क्यों अपने बच्चे को आप बार बार कहते हैं अंग्रेज़ी पढ़ हिंदी से कुछ हासिल नहीं होगा। क्यों वो बच्चे से उसकी ज़िंदगी के शुरुआती सवाल अंग्रज़ी में करते हैं यानी 'हाउ आर यू', 'वॉट्स योर नेम', 'वॉट्स योर ममाज़ नेम', 'वॉट्स योर फादर्स नेम' सरीखे सवाल क्यों उन्हें पूछे जाते हैं जिनका जवाब भी उन्हें अंग्रेज़ी ही देना सिखाया जाता है? जब शुरुआती सालों में ये नहीं सिखाया जाएगा कि हिंदी हमारी अपनी भाषा है तो हम आगे क्या आशा कर सकते हैं...शायद आने वाली पीढ़ियां ये तक नहीं जानती होंगी कि उनकी मातृभाषा आखिर है क्या? माना कि आज के परिप्रेक्ष्य में अंग्रेज़ी की भी उतनी ही ज़रूरत है क्योंकि आखिर अकेली अंग्रेज़ी ही वो भाषा है जिसे दुनियाभर के मुल्क समझते हैं...यानी अंतर्राष्ट्रीय भाषा लेकिन क्या हम अपनी मां को भूल जाएं? कल का कोई ठिकाना नहीं...हो सकता है आने वाला कल गैर-हिंदी राष्ट्रों की ओर आपका रुख करे...तब तो ज़रूरत पड़ेगी अंग्रेज़ी की। लेकिन अपने घर में तो हिंदी का ही गुणगान करें।

परंतु, कहानी तो बिलकुल उलट ही है। जहां एक ओर अपने ही देश में हिंदी दम तोड़ती दिखाई दे रही है वहीं विदेशी ज़मीं पर हिंदी ही वो कड़ी है जो प्रवासी भारतीयों की पहचान के साथ-साथ राष्ट्र की पहचान बनी हुई है। इसी तरह सही विश्व में हिंदी का मान-सम्मान तो बरकरार है। लेकिन, चिंता इस बात की है कि कहीं अपनी ही ज़मीन से धीरे-धीरे गायब होता हिंदी के प्रति लगाव राष्ट्र को तितर-बितर न कर दे। यही तो है वो ज़रिया जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमें जोड़े हुए है। कहीं वो सिरा भी न छूट जाए जिसके सहारे ज़िंदा है हिंदी...क्योंकि फिर हो जाएगी मुश्किल। फिर शायद सचमुच हिंदी को हिंदी पखवाड़े में याद नहीं किया जाएगा...याद में श्रद्धांजली दी जाएगी।