सोमवार, 21 सितंबर 2009

सच की नुमाइश...धोखा सा लगती है

नोट: मैंने सच का सामना का एक भी एपिसोड नहीं देखा है...लेकिन इसकी इतनी क्लिपिंग्स, इसके बारे में इतने डिबेट्स और लेख पढ़-चुन चुकी हूं कि शो देखने की ज़रूरत कभी महसूस ही नहीं हुई...या यूं कहूं कि देखने की बिलकुल इच्छा ही नहीं हुई तो सौ फीसदी सही होगा।


कहते हैं कि एक झूठ को भी सौ बार दोहराया जाए तो वो सच में तब्दील हो जाता है। लेकिन 'सच का सामना'कैसा सच है जिसे सच मानने को जी ही नहीं चाहता...क्योंकि इसमें संस्कृति डूबती सी दिखाई देती है। भद्दे सवाल और उनके शर्मसार कर देने वाले जवाब। मैं उन सवालों या जवाबों को यहां दोहराउंगी नहीं।


ग्लोबलाइजेशन जब तक आर्थिक स्तर तक सीमित था तब तक इसे हजम करने में शायद ही कहीं मुश्किल थी...लेकिन ये तो धीरे-धीरे संस्कृ्ति के साथ खिलवाड़ कर रहा है। कहते हैं कि साहित्य, फिल्में और टीवी वही पेश करते हैं जो समाज में हो रहा है...लेकिन टेलीविज़न तो कहीं से समाज की शक्ल को हूबहू नहीं पेश कर रहा। वो तो सिर्फ और सिर्फ टीआरपी की दौड़ में भागता चला जा रहा है। कहता है वही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं...समझ नहीं आ रहा कि समाज की भाषा टेलीविज़न के शो बोल रहे हैं या समाज टेलीविज़न की भाषा को अपनी भाषा बना रहा है। क्यों नहीं सोचते कि ऐसा सच का सामना समाज के हक में नहीं। अब तो सच का सामना टीवी पर ही नहीं...घर घर में लाइव-टेलिकास्ट हो रहा है। इसे नेगेटिव प्रेरणा ही कहा जा सकता है....सच का सामना घर में स्टेज हो रहा है और किसी न किसी को लील रहा है...यानी मौत वो भी सदमे से। शो के असर से अब तक 3 मौतें हो चुकी हैं...क्या इतना काफी नहीं आंखें खोलने के लिए?

रीएलिटी शो के नाम पर न जाने क्या परोसा जा रहा है। कहते हैं कि शो बिक रहा है...इतना मिर्च मसाला नहीं होगा तो कैसे बिकेगा। उधर, जो़रों की मार्केटिंग भी होती है तो अश्लीलता के दम पर। कहते हैं भई तुम संस्कृति की धज्जियां उड़ाओ हम तुम्हें ऐड(मनी-मनी) देंगे। क्या करें...मार्केट इकॉनमी है ना। पसीना बहाबहाकर सिर्फ पैसा ही तो कमाना है फिर संस्कृति बिके, किसी का घर उजड़े, बच्चे अपने ही मां-बाप को गालियों से धोएं या फिर पड़ोसी आपसे यूं छिपे जैसे आपका अगला शिकार कहीं वही न हो जाए। भई मेरा प्राइवेट मामला है...आपको इससे क्या। अपनी ज़िंदगी की नुमाइश करके मैं कुछ पैसे बना रहा हूं तो आपको क्या फ़र्क पड़ता है। शायद सच का सामना को सपोर्ट करने वाले यही सोचते हैं। ऐसा ही है तो अपने सच की नुमाइश प्राइवेसी में ही क्यों नहीं करते...करोड़ों लोगों के सामने सब कुबूल कर आप हो सकता है ये दिखाना चाहते हैं कि आप सच्चे हैं(सिर्फ पैसों के लिए)। लेकिन आपका एक सच अगर करोड़ों को ये सोचने पर मजबूर कर दे कि 'सच इतना कड़वा भी हो सकता है'...तब आप क्या करेंगे...जाहिर है आपको कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन समाज का बिगड़ता है। यकीन मानिए आप ऐसे अश्लील सच को बेचकर भले ही कुछ पैसा कमा ले जाएंगे लेकिन बाकी सबकुछ खो देंगे। अपने आप से और अपने अपनों से सच बोलना काफी है...नुमाइश सिर्फ धोखा सा लगती है...इससे ज़्यादा कुछ नहीं। कंटेस्टेंट्स में से किसी एक को भी अगर अदालत में सच कुबूलना हो तो यकीनन कोई नहीं करेगा(शायद गीता पर हाथ रखकर भी नहीं, बशर्ते ज़िंदगी दांव पर न हो)...क्योंकि वहां उसे सजा मिलेगी, लेकिन यहां तो सजा नहीं...पोटली मिलेगी धन की पोटली...फिर चाहे अपनों का जीना दूभर हो जाए, भले संस्कृति को ताक पर रखकर क्यों न मिले...क्या फ़र्क पड़ता है पैसे तो आ गए ना। सवाल का जवाब सच हो या झूठ...धज्जियां तो कंटेस्टेंट की उड़ीं।

नोट: मेरे एक मित्र से इस शो पर जिक्र हो रहा था...तो उनके मुंह से निकली एक बात मुझे बड़ी सटीक लगी। एक उम्रदराज कंटेस्टेंट अपने जवाबों की दलील में ये कह रहे थे कि वेश्यावृत्ति सबसे पुराना पेशा है...मैं सलाम करता हूं इस प्रफेशन को। तो मेरे मित्र ने कहा कि तो "क्यों नहीं इस पेशे को कानूनी करार कर दिया जाता। अगर वेश्यावृत्ति गैर-क़ानूनी है तो इस शो तो कतई कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए।"

अगर आपको ये शो पसंद नहीं तो मत देखिए..क्यों देखते हैं? अगर आपको इसमें अश्लीलता की बू आती है तो चैनल स्वैप कर लीजिए। जनाब शो के पहले एपिसोड से पहले ही क्लिपिंग्स का दौर शुरू हो जाता है। क्लिपिंग्स भी आधे घंटे में तीन-तीन बार...वहां भी सिर्फ वही सवाल-जवाब जो अश्लीलता को भी अश्लील कर दें। कैसे कहें और किसे कहें कि बेटा ये चैनल न देखो? एक बार की बात हो तब तो। ये तो छोड़िए...शो के जितने एपिसोड टेलिकास्ट नहीं हुए उससे कहीं ज़्यादा तो डिबेट हो चुके हैं। स्टार प्लस से हट किसी न्यूज़ चैनल पर जाएं तो चल रही होती है डिबेट...अरे महाबहस। क्या इस शो पर बैन होना चाहिए? अजीबो-गरीब दलीलें। हाफ स्क्रीन पर बहस और हाफ स्क्रीन पर शो की क्लिपिंग्स उनमें भी बार-बार वही सवाल जिनमें ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि ऊपर से नीचे तक कपड़े पहना हुआ इंसान पूरी तरह से नंगा हो जाता है। फिर कहते हैं कि शो न देखें..क्या देखें न्यूज़ चैनल........?(अगर याद हो आपको शो के शुरू होते ही, सारे न्यूज़ चैनल्स पर डिबेट का दौर चल पड़ा था।)

जब रीएलिटी शो की बात चली ही है तो यहां एक बात याद आ गई। कुछ महीने पहले एक निजी चैनल पर एक रीएलिटी शो में एक कंटेस्टेंट को जीरो नंबर देकर शो से बाहर का रास्ता दिखाया गया...वो भी बेशरम होने का खिताब देकर। अगर आपने देखा होगा तो आपको याद होगा उस शादी-शुदा लड़की ने सिर्फ अपने गाने के साथ थोड़ा सा डांस कर दिया था...जो अश्लील तो कहीं से नहीं लगा लेकिन जज तो जज ठहरे। उनकी नज़र में जो सही वो सही। ये ज़िक्र मैं अनायास ही यहां नहीं लाई हूं। कहने का मतलब ये है कि गाने के साथ थोड़ा सा अभिनय करना अगर अश्लील हो सकता है तो सच का सामना को आप क्या कहेंगे? रीएलिटी शोज़ की परिधि क्या है ये कौन तय करेगा। क्यों बनते हैं कानून? क्या इस संदर्भ में कोई कानून नहीं बनना चाहिए? एक तरफ किसी को प्राइज़-मनी से दूर कर दिया जाता है, मान-सम्मान की धज्जियां उड़ाई जातीं हैं और शो से भी बाहर कर दिया जाता है....और दूसरी तरफ ऐसा रीएलिटी शो जिसमें सिर्फ और सिर्फ अश्लीलता भरे या फिर रिश्तों में खलल पैदा करने वाले सवाल पूछे जाते हैं। क्या किसी की ज़िदंगी में जो कुछ भी गुजरा उसका दायरा इतना छोटा सा था? कहना सिर्फ इतना है कि सवालों के दायरे तय करने की जिम्मेदारी कौन लेगा?
कई लोगों से बात हुई तो उन्होंने कहा कि नेता इस शो का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि जनता के सामने कहीं उनका कच्चा-चिट्ठा न खुल जाए। लेकिन मैं कहती हूं कि भले ही नेता अपनी पोल-पट्टी खुलने से डर रहे हों...लेकिन जाने-अनजाने में उनका विरोध समाज के हित में बिलकुल सही है। अगर अपने कच्चे-चिट्ठे के डर से ही वो इस शो का विरोध कर रहे हैं तो मेरा उनको सलाम है...क्योंकि कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का अंश तो ज़िंदा रहेगा!

यकीन मानिए सच का सामना सिर्फ एक ही सच का सामना कर रहा है वो ये कि कंटेस्टेंट सच बोल रहा है(अगर बोल रहा है और पॉलिग्राफी मशीन कितने सच नतीजे देती है ये अब तय किसी को नहीं पता...मशीन है मशीन की तरह ही काम करेगी।)...बाकी सब झूठ है, मिथ्या है...क्योंकि वो सच घरों को तोड़ने की, समाज को बिखेरने की, रिश्तों में दरार पैदा करने की और संतान को अपनी मां की कोख पर भरोसा न करने की नींव तैयार कर रहा है।
ये मेरा नजरिया है....जो शायद सच का सामना के सच को सपोर्ट करने वालों से बेहद जुदा है। अगर ये है ग्लोबलाइज़ेशन की देन तो इसपर लानत है क्योंकि सच है डूब रही है हमारी संस्कृति...मुश्किल हो जाएगा आने वाली पीढ़ी को जवाब देना कि कैसे जुदा है हमारा प्यारा भारत जुदा है बाकी दुनिया से? यही है मेरी चिंता का सबब...क्या कहूं?

8 टिप्‍पणियां:

  1. ांअपका आलेख पढने मे बहुत असुविधा हुई रंग समायोज्न आँ खो मे चुभता है जरा हम जैसे बूडे लोगों का भी ध्यान रखा करें

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  2. आपसे पूरी तरह सहमत. यह दर्शकों को पूर्वनियोजित तरीके से बेवकूफ बनाने के अलावा सांस्कृतिक कुठाराघात भी है. इसीलिए मैंने टी0 वी० देखना कुछ गिने -चुने चैनलों तक ही सीमित कर दिया है.

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  3. bin dekhe tippni krne se behtar hai dekh kar behtar njriya vyakt krna. mein bhi is videsi show ke naklnama ke.lekin 1 apisode dekha tha.ise bhartiya roop diya ja skta tha. lekin bhartiyta ki fikr hai kise. isme mata pita ke samne jis tarh ke swal hote hain ve bstmeezi hi khe kayene. log paise ke liye yese karykrmon mein phuchte hain. swal ye hai log to aur bhi bhut kucch krte hain us sbka bhi prsaran kia jaye kya!

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  4. मुझे तो यह कार्यक्रम देखने लायक ही नहीं लगता.

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  5. mere vichar me yadi aapko sach ka samna karna hi hai, sachha banna hi hai to apne param sahyogi ya parivar ke saamne sach boliye... dunia ke samne sirf paise ke liye sach bolna, sach ka samna karna nahi balki apni bhoolo ko bechna hai..!

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  6. wahhhh aapki pahal achhi or majboot lagi....?? kahin na kahin globlization ki andhi dhoud hi iska mukhy kaindiy bindu hai....

    blog par dastak ke liye badhai ...aage bhi aate rahna !!

    Jai Ho Mangalmay HO

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  7. muje nahi lagta ki sach ka samna jese program ka globalization se kuch lena dena hai...glbalization jo v hai...kam se kam....ye to nahi hai...

    jaha tak sach ke samna program ka sawal hai...ye to bahut achchi pahal hai....sach bolneki shuruaat ki pahal...program ko kuch achcha banaya ja sakta tha...program ke content writers ko thori achci...ya yu kahe...sudhabhya bhasha ka prayog karna chahiye tha...

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  8. muje nahi lagta ki sach ka samna jese program ka globalization se kuch lena dena hai...glbalization jo v hai...kam se kam....ye to nahi hai...

    jaha tak sach ke samna program ka sawal hai...ye to bahut achchi pahal hai....sach bolneki shuruaat ki pahal...program ko kuch achcha banaya ja sakta tha...program ke content writers ko thori achci...ya yu kahe...sushabhya bhasha ka prayog karna chahiye tha...

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