रविवार, 15 नवंबर 2009

जब दरवाज़े पर खड़ी थी भविष्य बताने की दुकान

भविष्य बताने वालों की दुकान आपके दरवाज़े पर आ जाए, दुकान तुक्के पे तुक्का भिड़ाती जाए और सारे के सारे तीर निशाने पर लगते चले जाएं तो जाहिर है आपकी जेब भी हल्की होने को बेकरार हो उठेगी। अब ऐसा हुआ क्या...मैं अब आपको बताती हूं...सिलसिलेवार पूरी की पूरी गाथा।



मंगलवार का दिन..मोहल्ले में सन्नाटा। ऑफिस से कुछ दिनों की छुट्टी पर चल रही थी। पति के ऑफिस निकलने के बाद सोचा थोड़ा आराम कर लूं...फिर उठकर स्नान-पूजा की जाएगी। आराम क्या, आंख ही लग गई। थोड़ी देर बाद..यही कोई 10 बजे दरवाज़े पर खटखट हुई। हमेशा की तरह आवाज़ लगाई और पूछा कौन है लेकिन जवाब नहीं आया तो दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़े पर कुछ सरदारों की टोली थी, हाथों में कुछ कार्ड और पर्चे थामे उनमें से एक बोल पड़ा जी पास में लंगर है कुछ दक्षिणा...! मैं नींद में तो थी ही वो बोले जा रहा था मैं सुने जा रही थी। ईश्वर के नाम पर दान या चंदा देने में कोई हर्ज तो है नहीं यही चल रहा था मन में । सोचा-दे-दाकर भगाऊं इन्हें। बोलते-बोलते ही कार्ड मुझे थमा दिया एक सरदार ने और झट से 200-200 रुपये की दक्षिणा की पर्चियां दिखाने लगा। क्षणभर में मौक़ा देखकर 200 रुपये की पर्ची मेरी भी काट दी और बोले फलां व्यक्ति ने 200 दिए फलां ने 200 दिए आपकी भी 200 की पर्ची काट दी। मैंने कहा जी मैं आपको 200 रुपये नहीं दूंगी...जितनी मेरी श्रृद्धा उतना ले जाओ....बोले अच्छा चलो सौ की काट देते हैं।



मैं सौ रुपये ले आई और फिर पर्ची पर लिखने के लिए पति का नाम...मेरा नाम पूछ डाला। नाम पूछते ही फिर बातों में उलझा लिया। पति को कहिए कि फलां दिन शेव न करें, आपके सिर में हमेशा दर्द रहता है लेकिन बहन आपका चेहरा काफी लकी है, आपके विवाह के समय कुछ बुरा हुआ था ...वगैरह-वगैरह। पति को कहिए मंगलवार और शनिवार को फलां काम न करें। आपके पति गुस्से वाले ज़रूर हैं लेकिन दिल के नेक इंसान। घर में बरकत चाहिए तो ऐसा करें-वैसा करें। मैं क्यों यक़ीन करती...नींद में थी बस मन में चल रहा था कि ये जाते क्यों नहीं?



शायद ये पहली बार था कि दरवाज़े पर कौन है ये बिना जाने ही दरवाज़ा खोल दिया था। नींद का खुमार उतरने लगा था और मन में घबराहट के पहाड़ खड़े होते जा रहे थे। पर्ची मेरे हाथ में आ चुकी थी लेकिन मुझे उस पर्ची को देखने का मौक़ा तक नहीं दे रहे थे वो सरदार और अपनी बातों की पोटली खोलते ही जा रहे थे। यहां तो मन घबराहट में सांस ले रहा था...एक तरफ आस्था की बात तो दूसरी तरफ मेरे सामने ऐसे लोग जो न जाने सचमुच के ज्ञानी थे या तुक्केबाज़ जो सबकुछ सही-सही बके जा रहे थे। मेरी शादी की तारीख और साल तक सही-सही बता दिया उस सरदार ने। माता रानी के दर्शन, अपना मकान और न जाने क्या-क्या...ये सारे वो काम जिन्हें करने के लिए मैं कबसे कोशिश कर रही हूं। न जाने इन्हें ये कैसे पता...इन्हीं बातों का सहारा लेकर ये मुझे बातों में उलझाए रहे। इन बातों को मैं ढोंग समझ पाती कि इससे पहले कुछ ऐसा कह देते जो वास्तव में मेरे साथ घट चुका होता।



एक-बारगी दिमाग में ये खयाल आ गया कि कहीं ये मेरे बारे में कोई सर्वे कर के तो नहीं आए हैं? जी घबरा रहा था...कहीं इनकी बात न सुनी तो कुछ अनर्थ न हो जाए। तमाम तरह के सवाल मन में हिचकोले खा रहे थे। उसपर अपने आपको संभाले रखना भी ज़रूरी था। इन सरदारों की कोई बात मुझे ग़लत नहीं लगी। तकरीबन इन लोगों ने मुझे और चढ़ावा देने के लिए मना ही लिया था...पर आखिर में मेरा दिमाग ठनक गया। जहां ये सरदार खड़े थे वहां पास में ही सांई बाबा की तस्वीर लगी हुई है। सरदार बोल पड़ा आप शिरडी जाना चाहती हैं ना...गई हैं कभी? मैंने कहा हां जाना है कभी गई नहीं हूं। मुझे समझते देर नहीं लगी....तस्वीर को देखकर अंदाज़ा लगाया। फिर क्या था किसी तरह मैंने उन्हें अपने दरवाज़े से भगाया।



बैठी सोच ही रही थी कि पतानहीं सही किया या ग़लत...अचानक ध्यान आया कि पर्चा तो देख लूं आखिर लंगर है कहां। पर्ची देखी तो वो थी पंजाबी भाषा में। कार्ड पर छपे नंबर पर डायल किया तो फोन रिसीव करने वाला बोला जी हमने तो कोई लंगर नहीं रखवाया। उसे समझते देर नहीं लगी...कहने लगा मैडम लगता है मेरे नाम का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। कहने लगा क्या आप बता सकती हैं कि कार्ड कैसा दिखता है...आप कहां रहती हैं...क्या मैं आपसे पर्ची कलेक्ट कर सकता हूं? मैंने सब बताया लेकिन पर्ची कलेक्ट करने के लिए मना कर दिया।



ये तो तय हो गया था कि मैं बेवकूफ़ बन गई थी। वो सरदार न तो माता के भक्त थे ना ही वाहेगुरू के सच्चे भक्त। स्वयं पर गुस्सा आ रहा था। दिमाग़ को अजीबो-ग़रीब सवालों ने घेर लिया था। मसलन, उन सरदारों का मकसद पैसा वसूलना था तो वो किसी के बारे में इतना सबकुछ कैसे जान सकते हैं?



अब आंखें बंद कर मैं पूरे वाकये के बारे में सोचती रही। बार-बार दिमाग का टेप रिवाइंड-फॉरवर्ड करती रही और टेप खत्म होने पर जो एक सुकून होता वो ये कि चलो अंत में मैं समझ गई उन सरदारों को और 100 रुपये से ज़्यादा का चढ़ावा देने से साफ-साफ बच गई। रिवाइंड-फॉरवर्ड के इस खेल में परत-दर-परत सबकुछ साफ होने लगा। सबसे पहले अगर मैंने उन्हें 100 रुपये न दिए होते तो बात शुरू ही न होती। उनकी बातें सुनना मुझे बहुत महंगा पडा़...और महंगा पड़ सकता था।



गहराई से सोचा तो नतीजा ये निकला कि मेरे और पति के बारे में पूछकर और मोटा-मोटी बातें बताकर उन लोगों ने पहले मेरा विश्वास जीत लिया...ये ऐसी बातें थी जो अमूमन ऐसा कोई भी व्यक्ति बता सकता है जो नाम के हिसाब से राशि का थोड़ा-बहुत ज्ञान रखता हो। रही बात पसंद के फूल का नाम सोचने की तो शायद हर कोई गुलाब ही सोचेगा। इसके अलावा,ऐसा पक्षी जो मांस न खाता हो सोचे तो शायद तोता और कबूतर ही दिमाग में आएगा। यानी अंग्रेज़ी का पहला अक्षर 'p'।



फिर आई शादी की तारीख की बात, तो सरदार ने दूर जाकर एक कागज़ पर तारीख लिखने को कहा। सरदार ने मुझे ऐसी कलम दी जिससे लिखने में दिक्कत हो रही थी...यानी ज़ोर लगाकर लिखना पड़ा। मुमकिन है कि उसने हाथों की मूवमंट से पता कर लिया हो कि मैंने क्या तारीख लिखी..क्योंकि कलम मशक्कत करा रही थी। सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात शादी की बिलकुल सही तारीख और साल बताना ही लगा था। लेकिन इसके पीछे की चाल भई समझ आ गई।



इतने में याद आया एक सहेली भी कुछ ऐसा ही बता रही थी। फिर क्या था। अब भी अपनी उधेड़-बुन पर कन्फर्मिटी का स्टैंप लगाने के लिए सहेली को कॉल किया। आपबीती सुनाने से पहले मैंने उससे सवाल किए। कन्फर्म हो गया कि उसके साथ भी हूबहू वही और वैसे ही घटा जैसे मेरे साथ। सबसे बड़ी बात ये कि ये सरदार हमेशा सुबह का ही समय चुनते हैं...ऑफिस का टाइम जब लोगों के पास सोचने-समझने की फुरसत के बदले जल्दी-से बात को रफा-दफा करने भर ही समय होता है। सहेली से पूछा कि देखो तो क्या पर्ची पंजाबी में है क्या? ...उसने देखा तो सचमुच ऐसा ही था,उसपर छपा नंबर भी वही।



इतनी ही नहीं...अगले दिन एक और सहेली से बात हो रही थी उसे ऐसे सरदारों से सतर्क रहने के लिए कहा तो बोल पड़ी मेरे साथ खुद 2 साल पहले ऐसा वाकया हो चुका है...जल्दी में थी तो 400 रुपये दान कर दिए। लीजिए चलिए ये खुशी हुई कि मैं अकेली बेवकूफ नहीं बनी...लेकिन ये सोचकर और दुख हुआ कि जब मेरे जानने वालों में तीन लोगों के साथ ये घट चुका है तो बाकी कितनों को झांसा दे चुके होंगे ये सरदार?



बड़ा अफसोस हुआ ये सोचकर कि आस्था और ईश्वर के नाम का सहारा लेकर कमाई करने वालों से अटा पड़ा है हमारा देश। इन्हें पहचानने में चूक स्वाभाविक है...लेकिन ज़रूरत है तो नींद से जागकर सतर्क रहने की।