शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

गरीब रथ? सचमुच कितना ग़रीब

माता का बुलावा आ गया था...लेकिन रिज़र्वेशन अब तक हुआ नहीं था। अब तो तत्काल का ही सहारा था। ऑफिस से मिली छुट्टियों के हिसाब से शनिवार की रात निकलना ही बेस्ट ऑप्शन था। तो भई तत्काल रिज़र्वेशन करवाया दिल्ली टु जम्मू गरीब रथ से। ट्रेन नंबर 0405...जो सिर्फ हफ्ते में एक बार यानी शनिवार की रात चलती है।

इस स्पेशल ट्रेन में महज तीन बड़े हॉल्ट(दि्ल्ली और जम्मू छोड़कर)। रात 22:50 पर चलती है और सुबह 9:10 पर जम्मू स्टेशन पहुंचा देती है.....अरे-अरे ये तो सिर्फ शेड्यूल है।

ऑफिस से समय पर अपने हिस्से का काम समेट कर घर पहुंची। अभी लगेज भी पैक करना है। चढ़ाई करनी है तो जूते रखने ही होंगे। सैकड़ों फोन आ गए "बेटा बहुत सर्दी होगी वहां"...सो ढेर सारे गरम कपड़े भी पैक करने पड़े। और बाकी बहुत कुछ....चलो कुछ छूट गया होगा तो जम्मू कोई ऐसी जगह तो है नहीं जहां ज़रूरत का सामान नहीं मिलेगा....वहीं खरीद लेंगे। बकरीद का दिन था...और पुरानी दिल्ली से ट्रेन। सो टैक्सी वाले को जल्दी ही बुला लिया। ट्रेन का डिपार्चर 10:50 का था....टैक्सी दरवाज़े पर 9 ही बजे आ लगी। साढ़े नौ बजे तक सबकी ओर से माता के लिए भेंट लेकर टैक्सी में बैठ चल पड़े स्टेशन की ओर। और आधे घंटे में प्लैटफॉर्म नंबर 18 पर।

लो जी...ये क्या? वो लड़की कह रही है ट्रेन रात डेढ़ बजे आएगी। अरे नहीं-नहीं पागल हो गई हो क्या?अरे ज़रा ध्यान से सुनिए तो क्या अनाउंसमेंट हो रही है...हां वो लड़की सही कह रही थी। अब क्या करें। सर्दी की रात प्लैटफॉर्म नंबर 18 पर गुज़ारना कितना मुश्किल था। हर बेंच पर कोई न कोई परिवार बैठा था। कहीं कोई चाय का स्टॉल नहीं। लगेज लेकर कहां कहां जाएं। तुम ज़रा बैठो मैं देखकर आता हूं। सुबह एक परांठा खाया था...उसके बाद से कुछ नहीं। भूख भी लगी थी। एक वेटिंग रूम दिखा...लेकिन ठसाठस्स भरा। कहीं जगह नहीं थी..सब जम्मू जाने वाले। इतनी देर कौन इंतज़ार करेगा.....जहां-तहां बिछौना बिछाकर सब सोने लगे। कहीं और ठौर ढूंढने जा ही रहे थे तभी एक बेंच खाली हुआ। फिर क्या था...झट से जाकर उसपर अपना सामान रख दिया और फैल के बैठ गए..मैं और मेरे पति। अब भूख का इंतज़ाम करना था....कुछ मिला नहीं तो पतिदेव बर्गर ही ले आए और साथ में कोल्डड्रिंक। मजबूरी में बर्गर खाना पड़ा। जान में थोड़ी जान आई। नींद तो आ रही थी लेकिन सुबह की थकी हुई लग रहा था कि सो गई तो ट्रेन मिस हो जाएगी। बगल की बेंच पर एक नवविवाहित जोड़ा बैठा था..साथ में कुछ किशोर थे....देखकर लगा कि जोड़े के रिश्तेदार हैं। यूं ही मौका देखकर उनसे बातचीत शुरू हो गई। पहले उन किशोरों से। बदरपुर में रहते हैं भईया..पढ़ाई करते हैं....हम नहीं, भइया-भाभी हैं ये लोग माता के दर्शन को जा रहे हैं। हम तो इन्हें छोड़ने आए हैं। ये लोग पटना से आए हैं। आज दिनभर इन्हें दिल्ली घुमाई है...अब ये घूमेंगे जम्मू फिर अमृतसर। समय ज़्यादा हो गया। फिर चाय पीने की इच्छा हुई तो सबकी दोस्ती हो गई। बाहर से चाय आई और सब ऐसे घुल मिल गए जैसे बरसों से जानते हों एक-दूसरे को। ये तक तय हो गया कि जम्मू में एक साथ माता के दर्शन के लिए निकलेंगे...एक साथ ही कटरा चलेंगे और एक ही होटल में ठहरेंगे भी। इतने में ट्रेन लग गई। पानी की बोतल नहीं सो प्यास के मारे गला सूख रहा था। बातों-बातों में उसका ध्यान ही न रहा। लगा फुली एसी ट्रेन है क्या पैंट्री वाला पानी लेकर नहीं आएगा? ट्रेन में ही ले लेंगे पानी।

अब ट्रेन खुलने वाली थी। अपनी-अपनी बर्थ पर सब अपने आपको जैसे फेंक चुके थे। सोचा तो यही था कि बर्थ पर पड़ते ही सो रहेंगे। लेकिन गरीब रथ की गरीबी का अहसास होना शुरू हो गया था। बर्थ छोटी-छोटी। उसपर कुछ सामान रख दो तो सोते नहीं बनता। उसपर साइड वाली सीट हो...वही आरएसी....तो और मुसीबत। आते जाते लोग बार-बार टकराते जाएं। और तो और साइड में बीच की बर्थ तो मैंने पहली बार देखी किसी ट्रेन में। सचमुच थोड़ी देर में ही लगने लगा कि स्लीपर क्लास तो इससे लाख दर्जे अच्छी होती है। बस ट्रेन के फर्श पर लोग बिछावन बिछाकर सोए नहीं दिखाई दे रहे...यही अंतर है। अब पैंट्री वाले के इंतज़ार में बैठी रही...कब आएगा पानी?लेकिन बैठते-लेटते रात गुज़र गई। उसपर ऊपर की बर्थ पर सोए अंकलजी खर्राटे मार रहे थे...निंदिया रानी तो पहले ही पानी न मिलने के चलते रूठी हुई थीं उसपर खर्राटे सुनकर कहां से आतीं?

अरे, इस स्पेशल ट्रेन में पैंट्री वाला नहीं आया...चलो रात को नहीं आता होगा, लेकिन वॉशरूम में पानी न आने का क्या मतलब कोई बताएगा। रातभर में दो-तीन चक्कर काटे टॉयलेट के लेकिन पानी नहीं। वॉशरूम तो छोड़ो...वॉशबेसिन में पानी नहीं। वॉशरूम में तो फिर भी बूंद-बूंद पानी टपक रहा था। अंदर से मन रो रहा था। कैसी ट्रेन में बैठ गए हैं। न पानी है, न सोने की ठीक-ठीक व्यवस्था। और ना ही बाहर की ताज़ी हवा। घुटन हो रही थी ट्रेन में। सुबह हुई तो हर शख्स दूसरे शख्स से यही कहता सुनाई पड़ रहा था कि "पता होता कि ये ट्रेन ऐसी होगी तो इसमें कभी न बैठते। कहीं न कहीं से आवाज़ सुनने को मिल रही थी कि भाईसाहब आप पहले कभी आए हैं इस ट्रेन में?...नहीं जी मैं पहली और आखिरी बार आया हूं।" अपना दुख थोड़ा हल्का लगने लगा। सुबह करीब 8 बजे ट्रेन रुकी लुधियाना में। यहां स्टॉपेज टाइम है 20 मिनट का...लेकिन ज़्यादा ही रुकी होगी। चाय वाला आया...बिना पानी की बोतल के। उससे कहा भाई चाय तो दे दो लेकिन उससे पहले पानी की बोतल भिजवा दो प्लीज़। बंदा चाय के पैसे लेकर गया और तुरंत पानी की बोतल भी लेकर हाजिर हो गया। पानी को देखकर ही इतनी खुशी मिली कि क्या कहने। खैर...अब घंटों बाद गले से उतरा पानी, जान आ गई।

लुधियाना आ गया था...लोग कह रहे थे अब चार घंटे में जम्मू पहुंच जाएंगे। सोचा चलो काट लेंगे चार घंटे और। जी फिर रुख किया वॉशरूम का तो पानी अब तक नहीं....लगता है हमारी बोगी में ही नहीं है। कोच में मौजूद रेलवे कर्मचारी से पूछा भी पानी नहीं आ रहा...सारी रात लोग यहां परेशान रहे। कहने लगा मैडम आ रहा होगा...ऐसा कैसे? फिर कहने लगा अभी पांच मिनट में ठीक करवाता हूं। उसने ठीक भी करवा दिया। लेकिन कुछ देर बाद फिर वही समस्या। लगा माथा-पच्ची से कुछ मिलेगा है नहीं..बस भगवान जल्दी से जम्मू पहुंचा दे। लेकिन, भगवान को कहां मंजूर...भई ट्रेन लेट चली है तो बाकी की ट्रेनें थोड़े ही न देर करेंगी, वो तो टाइम से ही चलेंगी। अब गरीब रथ को जब लाइन फ्री मिलेगी तभी तो खिसकेगी। चलो भइया रामभरोसे। नाम तो रथ....लेकिन लग रहा था ट्रेन में पहिए भी नहीं हैं....खच्चर ही खींच रहे हैं ट्रेन को। सीट के बगल में एक परिवार बैठा था...मीयां-बीवी और उनका छोटा 4 साल का बच्चा ह्रितिश। बड़ा प्यारा बच्चा। वो न होता तो ये सफर न जाने और कितना लंबा और बोरिंग हो जाता। कहने लगा पापा ट्रेन रुक क्यों रही है बार-बार....पापा जवाब देते गरीब रथ है ना...बोलता रथ तो तेज़ दौड़ता है...पापा बोलते बेटे इस रथ में घोड़े नहीं लगे। रुकते-चलते, रुकते-चलते चक्की बैंक आ गया। लगा अब ज़्यादा नहीं। लेकिन भाई साहब लेट हो चुकी ट्रेन कहां टाइम कवर करती है। तीन घंटे लेट हुई तो तीन घंटे और उसमें जुड़ जाते हैं।

फिर ट्रेन रुकी तो बच्चे की हरकतें फिर शुरू। सामने की सीट पर एक सरदार जी बैठे थे। बच्चा बोला...आप सरदार जी हो। जवाब आया हां। बोला फिर तो आप गुरुद्वारे में रहते होंगे? सरदार जी बोले नहीं...फिर आप तो मंदिर में रहते होंगे। बच्चा बोला हां तो मेरे घर में मंदिर है मैं पूजा करता हूं तो मैं मंदिर में ही रहता हुआ ना.....!उफ्फ ये ट्रेन चल क्यों नहीं रही। थोड़ी देर में चल पड़ी। रफ्तार देखकर लगा पतानहीं कब तक पहुंचेंगे...सो पैंट्री से ही नाश्ता लेकर खा लिया। अब पीने का पानी तो ले लिया था....वॉशबेसिन में भी हाथ धोने के लिए पानी आने लगा था। चलो..उस बेल्ट में अखबार मिला तो सिर्फ अमर-उजाला। रविवार था...कुछ खास समाचार नहीं दिखा। नींच आने लगी। मैं आधे घंटे के लिए सो गई। उठी तो अब भी जम्मू काफी दूर था...और गरीब रथ के घोड़े रेंग रहे थे। इसी रफ्तार से गरीब रथ किसी तरह सांबा तक पहुंच गई। 1 बजने वाले थे। अब तो बस थोड़ी देर ही बाकी है...ज़्यादा से ज़्यादा आधा घंटा। सबके चेहरे पर खुशी। लेकिन गरीब रथ ने इस खुशी से भी गरीब कर दिया सबको। चलती फिर रुक जाती..और एक-दो मिनट के लिए नहीं कभी बीस मिनट तो कभी आधा घंटा। फिर चली थोड़ी देर के लिए। अब तो जम्मू स्टेशन से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर खड़ी रही तकरीबन एक घंटा। कई लोग जो कईयों बार यहां आ चुके थे या फिर यहीं के बाशिंदे थे रथ को छोड़ बीच रास्ते ही उतर गए और पैदल ही सामान के साथ बाकी दूरी तय करने लगे। ट्रेन में बैठे लोगों के पास फोन पर फोन आ रहे हैं....जी कहां तक पहुंचे हैं...हम आपको लेने के लिए स्टेशन पहुंच चुके हैं। उसमें उस बच्चे की परेशानी अलग...पापा मैं देखकर आता हूं आखिर ट्रेन चल क्यों नहीं रही है? लगता है मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। बीच बीच में उसकी बातें हंसा देती। आखिर में करीब एक घंटे से एक ही जगह पर खड़ी ट्रेन चल पड़ी और पांच मिनट में हम जम्मू स्टेशन पहुंच गए।

अब कटरा पहुंचने की जल्दी थी...चढ़ाई भी आज ही शुरू करनी थी। उतरते ही पहले वेटिंग रूम में मिले पटनाके जोड़े को साथ लिया और एक टाटा सूमो कर कटरा निकल पड़े। लेकिन, कटरा के रास्ते भर गरीब रथ की गरीबी पर चर्चा चलती रही। हर मामले में गरीब है गरीब रथ। भले ही लालू प्रसाद जी ने गरीबों को सस्ते में AC-ट्रेन का तोहफा दिया लेकिन गरीब के पास जिस चीज का अथाह सागर है यानी समय...उसके बारे में सोचा या नहीं सोचा, पतानहीं। या यूं कहें कि लालू जी जानते थे कि गरीब समय खर्च करने में खुश है क्योंकि उसके पास पैसा नहीं....तो गरीबों को हर लिहाज से गरीब गरीब रथ का सफर कहीं नहीं खलेगा। लेकिन, हम जैसे मध्यमवर्गीय लोगों का क्या? जिन्हें ऑफिस से छुट्टी भी गिनकर मिलती है। एक-दिन आगे पीछे हुआ नहीं कि नौकरी पर प्रशनचिन्ह लग जाता है।

बहरहाल, गरीब रथ चाहे कितनी भी गरीब क्यों न हो...लेकिन सच तो ये है कि लाखों लोगों को यही ट्रेन माता के दर्शन करवाती है। यही वो रथ है जिसे सरपट घोड़े नहीं दौड़ाते...लेकिन देर-सवेर आप अपने गंतव्य पर पहुंच तो जाते हैं। और तो और, अगर आप तत्काल से भी गए तो अंत तक इस ट्रेन में आपको तत्काल आरक्षण मिल ही जाता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मालगाड़ी की जगह सवारीगाड़ी चला दी इतना ही काफी है, सुविधाऔं की आदत अब छोड़ देनी चाहिये.

    जवाब देंहटाएं
  2. Send this link to Indian Railways. Very good description of the journey.

    जवाब देंहटाएं