शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

...ऑफिस में ही घर बना लूं?




मंदी-मंदी कहकर खून चूस लिया इन्होंने। 10 की जगह 16 घंटे काम करो। रात को 12 बजे घर पहुंचो...लेकिन सुबह 7 बजे हाजिरी दे देना देना बाबू। कहीं ऐसा न हो कि नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। क्या करें मुई मंदी को भी हमारे ही काल में आना था। अरे भई मेहनत कर रहे हो लेकिन मेहनत का कोई फल भी तो मिले। फाइनल आउटपुट की बाज़ार में कुछ पूछ ही नहीं हो रही तो...काम तो ज़्यादा करना ही पड़ेगा। उसपर पैसा नहीं आ रहा...और तो और छंटनी पे छंटनी कर रहे हैं और बाकी जो बचे हैं उन्हें भी डराते रहते हैं, कुछ और नहीं तो मंदी के बहाने सैलरी पर ही कैंची चला डाली।

क्या करें...तनाव नहीं होगा तो क्या होगा? घर जाओ तो घरवालों की सुनो। कोई समझता ही नहीं है। उसपर अगर शादी-शुदा हैं तो और आफत। जब तक कंवारे थे॥कोई चिंता नहीं थी। खुद नहीं कमाएंगे तो मां-बाप खिलाएंगे...चलो इसी बहाने कमाने वालों की लिस्ट से एक तो घटता। अब तो घर की ज़रूरतों का हौआ ऑफिस में भी गुर्राता रहता है...कहता है स्वाभिमान भूल जा...कुत्ता बन जा।


लेकिन, मंदी का मुंह तो इतना बड़ा हो गया है कि अब बॉस के सामने दुम हिलाने से भी कुछ नहीं मिल रहा...उसकी खुद की दुम जो जाम हो गई है। सोचा नहीं था कि ये दिन दिखाएगी मंदी। लगता है ऑफिस में ही घर बना लूं। घर जाने से डर लगता है, आने वाली का हौआ आंखें तरेरे खड़ा रहता है...कहता है बचत कर, बचत कर। यहां तो आज संभालने के लाले पड़ गए हैं...आने वाले समय की कैसे सोचूं?


ऐसे में तो यही कह सकते हैं: घर का कमाऊ पूत निकम्मा हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। निकम्मा नहीं तो बीमार हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। बीमार नहीं तो पागल हो गया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। पागल नहीं तो अधमारा बना दिया...सब मंदी की मेहरबानी है बाबू। अधमरा नहीं तो ऑफिस में ही घर बनाकर रहने को तैयार हो गया....सब मंदी की मेहरबानी है बाबू।


ना-ना-ना..बस बहुत हुआ। अब तक मंदी की बारी थी, अब हमारी बारी है। ऑफिस को घर बनाने का खयाल छोड़ दिया हमने....

2 टिप्‍पणियां:

  1. एसे में तो लगता है कि कम्यूनिस्ट अच्छे थे. पैसे भी ज़्यादा नहीं मिलते थे तो क्या ! कम ये कम उनके डर से इतनी कोताही तो कोई लाला नहीं करता था. इसे कहते हैं मज़दूर को अफ़सर बता उसका शोषण.

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  2. अब हम भी क्या कहें? स‌ब मंदी की मेहरबानी है बाबू! :)

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