काहे की मातृभाषा है हिंदी...जब अंग्रेज़ी बिना काम ही नहीं चलता। सितंबर का महीना आता है और आने लगती है हिंदी की याद...साल भर क्यों नहीं याद रहता कि यही वो भाषा है जो राष्ट्र को जोड़े हुए है? हिंदी पखवाड़ा आते ही जगह-जगह बोर्ड टंगे नज़र आते हैं जिनका मजमून कुछ इस तरह होता है...फलां तारीख से फलां तारीख तक हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। समझ नहीं आता कि ये खुशी है या फिर हिंदी को दी जाने वाली एक तरह की श्रद्धांजली? क्या चाहते हैं हम? इस पखवाड़े का आयोजन कर हम नौजवानों और बच्चों को ये याद दिलाने की कोशिश कर रहे है कि ये हमारी मातृभाषा है और उन्हें वापस हिंदी की तरफ लौटने को कह रहे हैं....या फिर ये कह रहे हैं कि कभी ये हमारी मातृभाषा हुआ करती थी, ये पखवाड़ा उसी को श्रद्धांजली देने के लिए आयोजित किया जाता है।
मालूम पड़ता है कि पूरा देश ही अंग्रेज़ियत का गुलाम हो गया है। हिंदी बोलने और लिखने वाले को न जाने क्यों हीनता का शिकार होना पड़ता है। अंग्रेज़ी नहीं आती...कम तनख्वाह पर ही काम करना होगा। अंग्रेज़ी नहीं आती...तुम्हारे लिए यहां कोई जगह नहीं...क्या फ़र्क पड़ता है जो तुम हिंदी के महाज्ञाता हो। कुछ चुनिंदा सरकारी दफ्तरों में हिंदी का आज भी मान है...लेकिन वहां भी प्रमुख भाषा के तौर पर नहीं। भई दोनों भाषाओं की बढ़िया पकड़ है तो स्वागत है, अनुवाद करना आना चाहिए। क्यों...क्या ये सच्चाई नहीं? यानी पन्नों पर ही ज़िंदा रह गई है हिंदी।
सवाल ये है कि क्या हिंदी लुप्त हो चुकी है? नहीं, क्योंकि उसी का सिरा हम पकड़े हुए हैं। भाषा मिलावटी हो गई है तो क्या...वैश्विकरण की ही देन समझ लीजिए। वैसे भी सामने वाला आपकी भाषा समझ न पाए तो उस भाषा का क्या अर्थ? यहां फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' के एक संवाद का जिक्र करना शायद सही हो। फिल्म में विद्या बलान जब संजय दत्त से पूछती हैं कि आप प्रफेसर होकर भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं...यानी 'बोले तो'? तो संजय का जवाब वाकई आज के समाज को प्रतिबिंबित करता है। उन्होंने जवाब दिया आज के स्टूडेंट्स को शुद्ध हिंदी समझ ही नहीं आती॥जैसे बोलें 'हृदय परिवर्तन'तो लगता है 'हार्ट अटैक' की बात हो रही है। हालांकि, फिल्म में संजय का किरदार असल में मवाली का था लेकिन बात पते की कह गया ये संवाद।
सवाल उठता है कि आखिर दोष किसका है? यहां फिरंगियों के सिर पूरा का पूरा दोष मढ़ने से काम नहीं चलेगा। अंग्रेज़ों ने बरसों तक हमारे मुल्क पर राज किया...सारा का सारा सरकारी कामकाज़ अंग्रेज़ी में होने लगा लेकिन क्या आज़ादी के 62 साल गुज़र जाने के बाद भी हमें इतना समय नहीं मिला कि इस ढ़ांचे को बदल सकें। क्यों नहीं इस बात पर ज़ोर दिया गया कि सरकारी कामकाज के लिए प्रमुख भाषा हिंदी ही रखी जाए। क्यों नहीं देश के हर नागरिक को इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वो हिंदी(भाषा-आचार-विचार) में जिए। लेकिन, अगर आप सोच रहे हैं कि मेरा कहने का अर्थ सिर्फ सरकार से है या फिर इस हालात तक पहुंचने का ढ़ींकरा सरकार के मत्थे मढ़ रही हूं तो आप ग़लत हैं।
अभिभावकों से एक सवाल है...क्यों अपने बच्चे को आप बार बार कहते हैं अंग्रेज़ी पढ़ हिंदी से कुछ हासिल नहीं होगा। क्यों वो बच्चे से उसकी ज़िंदगी के शुरुआती सवाल अंग्रज़ी में करते हैं यानी 'हाउ आर यू', 'वॉट्स योर नेम', 'वॉट्स योर ममाज़ नेम', 'वॉट्स योर फादर्स नेम' सरीखे सवाल क्यों उन्हें पूछे जाते हैं जिनका जवाब भी उन्हें अंग्रेज़ी ही देना सिखाया जाता है? जब शुरुआती सालों में ये नहीं सिखाया जाएगा कि हिंदी हमारी अपनी भाषा है तो हम आगे क्या आशा कर सकते हैं...शायद आने वाली पीढ़ियां ये तक नहीं जानती होंगी कि उनकी मातृभाषा आखिर है क्या? माना कि आज के परिप्रेक्ष्य में अंग्रेज़ी की भी उतनी ही ज़रूरत है क्योंकि आखिर अकेली अंग्रेज़ी ही वो भाषा है जिसे दुनियाभर के मुल्क समझते हैं...यानी अंतर्राष्ट्रीय भाषा लेकिन क्या हम अपनी मां को भूल जाएं? कल का कोई ठिकाना नहीं...हो सकता है आने वाला कल गैर-हिंदी राष्ट्रों की ओर आपका रुख करे...तब तो ज़रूरत पड़ेगी अंग्रेज़ी की। लेकिन अपने घर में तो हिंदी का ही गुणगान करें।
परंतु, कहानी तो बिलकुल उलट ही है। जहां एक ओर अपने ही देश में हिंदी दम तोड़ती दिखाई दे रही है वहीं विदेशी ज़मीं पर हिंदी ही वो कड़ी है जो प्रवासी भारतीयों की पहचान के साथ-साथ राष्ट्र की पहचान बनी हुई है। इसी तरह सही विश्व में हिंदी का मान-सम्मान तो बरकरार है। लेकिन, चिंता इस बात की है कि कहीं अपनी ही ज़मीन से धीरे-धीरे गायब होता हिंदी के प्रति लगाव राष्ट्र को तितर-बितर न कर दे। यही तो है वो ज़रिया जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमें जोड़े हुए है। कहीं वो सिरा भी न छूट जाए जिसके सहारे ज़िंदा है हिंदी...क्योंकि फिर हो जाएगी मुश्किल। फिर शायद सचमुच हिंदी को हिंदी पखवाड़े में याद नहीं किया जाएगा...याद में श्रद्धांजली दी जाएगी।
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सोमवार, 14 सितंबर 2009
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